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________________ ११४ है । ''लेकिन नहीं, झूठ है वह । चेलना दगा दे गयी, तो अब जगत की कौन-सी कोमलता सत्य हो सकती है ? • वह अपने ही भीतरतम के निभृत कक्ष में सुरक्षा खोजना चाहता है । पर वहाँ तो घुप् अँधेरा है । और उसमें बीहड़ चट्टानें सिर धुन रही हैं। राजा जड़, मृतवत् हो कर पड़ रहता है । मन, चेतन, विचार सब हार कर निर्वापित हो जाते हैं । वह कोई नहीं, कुछ नहीं । इयत्ता काफ़ूर हो जाती है । शरीर ग़ायब हो जाता है । और सम्राट नींद के समुद्र में ग़र्क हो जाता है । कभी सबेरे ही, सावन की सुहानी मुलायम धूप निकल आती है । सारी भींगी वनश्री पन्नों की आभा से जगमगा उठती है। हरियाली धानी ओढ़नी में यह कौन नवोढ़ा, सम्राट के सामने समर्पित बैठी है । उसके गोपित शरीर का सघन मार्दव श्रेणिक को चारों ओर से चाँपे ले रहा है । आपोआप ही राजा के शरीर में रभस-रस ज्वारित होता रहता है । कितनी परिचित है इस गोपित शरीर की गन्ध और ऊष्मा ! आदिम दूध की सुगन्ध । सोम-लता की मादक महक । वही एकमेव देह- गन्ध, जिससे अधिक उसे कुछ भी प्रिय न रहा । 1 6. • ' चेलना, तुम्हारे इस छल और पीड़न से मैं से आजिज़ आ गया हूँ । मुझे अकेला छोड़ कर, उस नग्न श्रमण के पीछे भागी फिर रही हो ! और फिर भी यह कैसी कपट- माया है, कि हर पल मेरे आसपास भाँवरे दे रही हो । पास नहीं आती, लेती नहीं मुझे, और फिर भी कस कर बाँधे हो मुझे, अपनी बाहुओं के नागपाश में। .. ''तुम्हें अपनी छाती में भींच लेने को होता हूँ, तो देखता हूँ, कि मेरी बाँहों का घेरा शून्य पड़ा है । उफ्, मायाविनी, स्पष्ट है कि आज तक तुम मेरे आलिंगन में कभी न आयीं ! किसी मायावी शरीर से मेरे समस्त को बहलाती, भरमाती रही । छलती रही । 6.. 'मैं तुम्हारे कामराज्य की दीवारें फाँद कर इस जंगल में मुक्त विचरने चला आया । मगर यहाँ भी, डाल-डाल पात-पात, तुम मुझसे पकड़ा-पाटी खेल रही हो । मूल से चूल तक मुझे कस कर पकड़े हुए हो, और स्वयम् कहीं से भी मेरी पकड़ाई में नहीं आती । ओह, यह सारा भेदी जंगल मेरे विरुद्ध एक भयानक षडयंत्र है । दिगन्त-व्यापी यह विशाल और सुन्दर प्रकृति अपने समस्त यौवन को उभार कर मेरी आत्मा पर हर पल चोट कर रही है । 'आक्षितिज लेटे सिंह जैसी यह सामने की प्रकाण्ड पर्वत-पाटी । यह हर क्षण रंग बदल रही है । यह कौन प्रचण्ड चट्टानी पुरुष इतमीनान से लेटा है ? यह सारा जंगल जैसे इसकी वज्र-कठोर और कुसुम - कोमल काया है । इसके पिण्ड में सारे ब्रह्माण्ड हर पल चक्कर काट रहे हैं । अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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