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. . और मेरे ही प्रांगण के विपुलाचल पर, तमाम देवलोकों ने उतर कर तुम्हारा समवसरण रचा। और मैं अपने ‘एकस्तम्भ प्रासाद' के चूड़ान्त वातायन पर से, दूर गन्धकुटी पर आसीन तुम्हारे परम लावण्य और भामण्डल को . अहर्निश टकटकी लगाये देख रही हूँ । मेहाराब पर माथा ढलकाये, रेलिंग पर बाँहें ढाले, तुम्हारी वाणी को क्षण-क्षण पी रही हूँ। · · · मानो कि तुम मेरी आँखों में ही बैठे हो, और मेरे नाभि-कमल में से ही बोल रहे हो। __. . फिर भी कितनी विकल हूँ तुम्हारे सम्मुख आने को। पर तुम कैसे निष्ठुर खिलाड़ी हो। ठीक इस महामुहूर्त में तुमने मुझे उनसे बिछुड़ा दिया। कि अकेली ही आऊँ तुम्हारे पास ? · · 'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता । चाहो तो अटूट युगल में ही हमें स्वीकारो, या हमें छोड़ दो। तुम्हारे प्यार के ये चक्रावर्ती पीड़न और अत्याचार अब नहीं सहे जाते, मेरे प्रभु ।' ____और चेलना यों ढलक पड़ती है अपनी शैया में मूछित हो कर, मानो कि अपने सर्वस्व के चरणों में आ पड़ी हो ।
समुद्रजयी मगधेश्वर का साम्राजी सिंहासन सूना पड़ा है। राजसभा सन्नाटा खींच रही है। मंत्री, सामन्त, तमाम राज परिकर विपुलाचल के समवसरण में चले गये हैं । सिंहतोरण के नौबतखाने तक खामोश पड़े हैं। समय सूचक घड़ियाल बजाने वाले भी, समय को भूल, समायसार श्री भगवान की दिव्य-ध्वनि में तल्लीन हो गये हैं। अन्य सारी महिषियाँ, राजपुत्र, समस्त राज-परिवार विपुलाचल पर उपस्थित है । एकाकिनी चेलना अपनी प्रासाद-चूड़ा में अकेली बैठी, एक ओर विपुलाचल को एकटक निहार रही है। दूसरी ओर गंगा पार के चम्पारण्य की खन्दकों और वीरानियों मे अपनी आँखों के गीले नर्गिस बिछा रही है।
__ श्रेणिक परेशान है, कि इस वीराने में भी कोई देव-माया उसका पीछा कर रही है। यह क्या, कि पूर्वाह्न और सायह्न की दोनों भोजन-बेला में, अचानक किसी वृक्ष-छाया में भोजन की थाली रक्खी दिखायी पड़ जाती है । क्या इस अरण्य का कोई अदृष्ट राजा उसकी सेवा में नियुक्त है ? उसकी सत्ता प्रकृति तक में व्याप्त है ? • • और श्रेणिक की भूख उजल उठती है। अज्ञात में से प्रस्तुत थाली पर वह झपट पड़ता है, और भोजन कर लेता है।
और दोपहरी के विश्राम के समय किसी छायालस वन में, वन-कदली और फूलों की सुखद शैया बिछी दिखायी पड़ जाती है। सम्राट विजयोन्माद में झूमता उस शैया पर लेट कर विश्राम-सुख अनुभव करना चाहता है । लेकिन करवटें
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