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निछावर हो रहे हैं, उसका भोग्य हो जाने के लिये । और वह है, कि लौट कर उनकी तरफ़ देखता भी नहीं । बुद्धि और बाहुबल दोनों से परे है यह घटना !
और अपराजेय श्रेणिक, ऐसी चौमुखी पराजय के बीच ठहरे तो कैसे ठहरे । नहीं, नहीं, नहीं, र्हागज़ नहीं । इस वस्तु-स्थिति को ही वह महीं स्वीकार सकता । जिस पृथ्वी पर वह सर्वोपरि नहीं, सबसे बड़ा नहीं, वहाँ वह नहीं ठहर सकता । श्रेणिक के लिये वस्तु और विश्व को अपनी राह बदल देनी होगी । या फिर वह उनसे इनकार कर देगा । ..
वस्तु और विश्व अपनी गति में अटल दीखे । वे महावीर के ओरेदोरे घूमते दीखे । तो सम्राट निमिष मात्र में वेश बदल कर महल से बाहर हो गया । अश्वशाला में जा कर स्वयम् ही अपना अश्व खोल लिया । और पहने कपड़ों, निहत्था और बेसरंजाम, वह घोड़ा फेंकता हुआ, राजगृही के सीमान्तों पार ओझल हो गया । लेकिन कोट्टपाल ने सम्राट के वल्गा खींचने के अन्दाज़ से उन्हें पहचान लिया । सो तुरन्त सारे सरंजाम के साथ शस्त्र - सज्जित अंग-रक्षकों का एक दल पलक मारते में सम्राट के पीछे हो लिया ।
• चेलना मन ही मन सब समझ गई थी । गहरे में वह कहीं निश्चिन्त थी, कि अब 'उनका' कोई अमंगल नहीं हो सकता । त्रिलोक की सब से बड़ी पुण्यप्रभा राजगृही के विपुलाचल पर बिराज रही है। मृत्युंजयी महावीर उसके शिखरों पर से बोल रहे हैं । वह अच्छी तरह जानती थी कि वे प्रभु ही श्रेणिक के सब से बड़े मित्र, परम प्रेमिक और प्रेमास्पद हैं। उनके होते अकल्याण कैसा ? लेकिन कहाँ चले गये वे ? पहने कपड़ों गये हैं । निहत्थे और निःसंग गये हैं । और जितने उच्चाटित वे गये हैं, तो सिंहों की माँदों, और मौत की ख़न्दक़ों के इधर नहीं अटकेंगे।'' 'तो चेलना कहाँ रुके ? कैसे थमे ? सुकोमल, सुगन्धी शैयाओं को कैसे सहे ? भोजन का ग्रास कैसे उठाये ? साँस क्यों कर ले ?
• वे साथ नहीं हैं, तो जीवन और जगत उसके जीने, रहने, चलने योग्य नहीं । वे साथ नहीं हैं, तो अपनी सत्ता के स्वामी, त्रिलोकीनाथ महावीर के पास भी वह नहीं जा सकती ! नहीं नाथ, मैं अकेली नहीं आऊँगी तुम्हारे पास । तीन लोक, तीन काल के कण-कण को तुम आज सम्बोधित कर रहे हो । तीर्थंकर से बड़ी सत्ता और महिमा पृथ्वी पर अन्य नहीं । 'जानती हूँ, मेरे ही कारण तुम पंचशैल में सबसे अधिक तपे । यहीं चरम समाधि में उतरे । यहीं तुम अर्हत्
केवली हो कर प्रकट हुए ।
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