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कुछ मेरे लिये पराया, बैग़ाना हो गया है। हर शै ने मुझे धोखा दे दिया है। एक नग्न और निष्क्रिय भिक्षुक ने, एक उँगली तक हिलाये बिना, आँख तक उठाये बिना, अपार बाहुबल और पौरुष से जीते मेरे साम्राज्य पर अनायास क़ब्जा कर लिया ? ___ . . 'ऐसा कैसे हो सकता है ? इतिहास में ऐसा सुना नहीं गया। यह वास्तविक नहीं, मायिक लगता है। यह किसी तांत्रिक विद्याधर का इन्द्रजाल है। ___.. मेरे सर पर मण्डला रहे ये देव-देवांगनाओं के रत्नों झलमलाते विमान। पंचल के मर्मों में गाज रहे मृदंग और नक्काड़े । विपुलाचल की शिखरमाला पर नाचती वे अप्सरियाँ ! • “और उनकी झंकारों में से उठता आ रहा रंगारंग आभाओं का एक विराट् भवन। जिसे लोग सर्वज्ञ महावीर का समवसरण कह रहे हैं। उसकी धर्म-सभा। धर्म-साम्राज्य-नायक का राज-दरबार ।
'.. लेकिन यह सब वास्तविक नहीं । ठोस नहीं। ग्राह्य नहीं। बुद्धिगम्य तक नहीं। निश्चय ही महावीर ने निदारुण तपस्या करके कोई चरम तंत्र-विद्या सिद्ध कर ली है। और उसी के बल उसने ये सारे इन्द्रजाल दिखा कर मेरी प्रजाओं को सम्मोहित और मूर्च्छित कर दिया है । और सब के तन-मन, इन्द्रियों को कीलित कर, उनको अपने मायावी ऐश्वर्य की महिमा से दिग्भ्रमित कर दिया है।'
. . और अपने ही अट्टहास को सुन कर श्रेणिक स्वयम् से भयभीत हो उठा था। पर्वतों को हिला देने वाला उसका वीर्य थरथर काँप रहा था। उसकी भुजाएँ मानो पक्षाघात से लुंठित-सी हो गई थीं।
• • उसने चीख कर पुकारा था: चेलना ! रह-रह कर कई बार। पर कोई उत्तर नहीं लौटा था। कोई दास-दासी या परिचारिका तक उसकी पुकार पर उपस्थित न हुई । वह अन्धड़ की तरह भागा हुआ, चेलना के अन्तःपुर में गया था। महारानी के कक्ष में फूलों का वसन्तोत्सव छाया था । धूपायनों से अगुरु-धूप के छल्ले उठ कर वातावरण में जैसे सपनों की चित्रसारी कर रहे थे। सम्राट ने पुकारा : 'चेलना · · चेलना · चेलना!' निस्तब्ध कक्ष में से कोई उत्तर न लौटा। . . अचानक श्रेणिक को आभास हुआ, जैसे सुदूर परिप्रेक्ष्य में एक नीली आभा का गहराव खुल रहा है। और उसमें श्वेत परिधान किये, खुले बालों, हाथ उठाये चेलना एक तेजःकाय नग्न पुरुष के पीछे भागी जा रही है।
. . 'उल्टे पैरों लौट पड़ा था सम्राट। कांचन, कामिनी, साम्राज्य, सम्राज्ञी, सब उससे पीठ फेर कर जैसे उस नंगे भिक्षुक के पीछे दौड़ रहे हैं। उस पर
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