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परिकर के कुछ लोग, शस्त्रास्त्रों से लैस दूर-दूर रह कर उनका पीछा कर रहे हैं। अपने इस दुर्दान्त यायावर सम्राट के सामने पड़ने का साहस उनमें नहीं है।
उम दिन का वह विस्फोटक प्रभात सम्राट के मन में रात-दिन चक्कर काट . रहा है। · · पंचशेल की घाटियाँ और उपत्यकाएं उस सवेरे हठात् देव-दुन्दुभियों से घोषायमान हो उठी थीं। दिव्य वाजिंत्रों से अन्तरिक्ष गुंजरित हो रहे थे। मगध के आकाश उतरते देवमण्डलों के विमानों से झलमला उठे थे । और श्रेणिक ने अपने प्रासाद के सर्वोच्च वातायन से देखा थाः विपुलाचल और वैभार के कँगूरों पर अप्परायें नाच रहीं थीं। दिन-रात सौन्दर्य और विलास को तरसती श्रेणिक की आत्मा को दे उर्दशियाँ और तिलोत्तमाएँ अन्तिम रूप से उच्चाटित किये दे रहीं थीं । ओह, असह्य दाहक था लावण्य का वह प्रज्ज्वलित लोक। मानो कि उसमें आहुत हो जाना होगा, और उपाय नहीं । किसने उजाली है यह होमाग्नि ? .. __... ' और राजगृही के पण्यों और चौक-चौराहों में अविराम जयध्वनियाँ उठ रहीं थीं। राह-राह पर सारी प्रजा एक जुलूस में उमड़ पड़ी थी। ठीक मगधेश्वर के राज-प्रासादों के सामने से गुज़रती भीड़ का दिगन्त-भेदी घोष उठ रहा था :
वैशाली के राज-संन्यासी वर्द्धमान महावीर
सर्वज्ञ हो गये : विपुलाचल पर देव-सृष्टियाँ उतर रही हैं, वे कैवल्यस्य॑ प्रभु का समवसरण रच रही है, त्रैलोक्येश्वर भगवान महावीर जयवन्त हों, सम्राटों के सम्राट, अनन्त कोटि ब्रह्माण्डनायक
तीर्थकर महावीर जयवन्त हों ! - सुनकर सम्राट अपने गोपन-कक्ष के गवाक्ष में स्तम्भित हो रहे । जैसे किसी ने मारण, मोहन, वशीकरण, कोलन उन पर एक साथ किया हो । उनके कान का अन्तिम पर्दा भेद कर उनकी स्तब्ध चेतना में केवल एक ही ध्वनि गूंज रही है : 'सम्राटों के सम्राट, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड-नायक भगवान महावीर !' . . ऐसी भी कोई सत्ता हो सकती है ? तो मेरी सत्ता समाप्त हो गई ? मेरी ही धरती में धंस कर, किसी ने मुझे धराशायी कर दिया ! मेरे ही राजनगर राजगृही में, मेरी नहीं, उसकी जयकारें गूंज रही हैं!
- 'ओह, मेरे रत्नकक्ष का यह वैभव, यह मेरी विलास-शैया ही मुझ से छिटक कर दूर खड़ी हो गयी है । अपने ही बाहुबल से जीती मेरी यह पृथ्वी तक मेरे पैरों तले से खिसक गई है। मुझे सहारा देने को वह तैयार नहीं। यहाँ का सब
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