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अहम् के वीरानों में
इधर महावीर वन से निकल कर जन में प्रकट हो गये। उधर श्रेणिक जन से पलायन कर, विजन में खो गये । पर वे इस भूगोल से भाग कर जायें, तो कहाँ जायें। मगध का सीमान्त लाँघ कर, वे इस चम्पारण्य में भटक पड़े हैं। पर यहाँ भी कहीं छुपने या खो जाने की जगह वे नहीं टोह पा रहे हैं। यहाँ भी सब कुछ कितना उजागर, उज्जीवित, चौकन्ना है। यहाँ भी चप्पे-चप्पे पर एक अविराम पगचाप गूंज रही है। कण-कण और क्षण-क्षण के भीतर कोई चल रहा है। इससे बचत
कहाँ ?
चम्पारण्य के ऐसे भयावह नर्जन्यों तक में वे घुसते चले गये हैं, जहाँ कभी मनुष्य का पद-संचार ही नहीं हुआ। अडाबीड़, पथहीन अटवियों में वे अन्धाधुन्ध भटक रहे हैं । · पर यह क्या है, कि जहाँ वे पैर रखते हैं, वहीं एक पगडंडी प्रकट हो उठती है । दूरियों में जाता एक प्रशस्त रास्ता खुलता दिखायी पड़ता है। जिधर देखते हैं, उधर ही रास्ते खुलते दिखायी पड़ते हैं।
लेकिन यह क्या, कि हर रास्ता विपुलाचल को जा रहा है । श्रेणिक की आँख में बिजली की तरह कौंध जाता है, वह शिखर । और वे उल्टे पैरों लौट पड़ते हैं। तो उधर भी वही रास्ता सामने पड़ कर, पैरों को बेतहाशा खीचता है। · · या तो वे उस रास्ते पर चल पड़ें और चले जायें, जहाँ वह ले जाये। या फिर वे अपने ही आत्म के परम निभृत में लीन हो जायें। और कोई विकल्प सम्भव नहीं। . - लेकिन उन्हें चैन नहीं, विराम नहीं कि वे कहीं रुक सकें, थम सकें । बैठना
और लेटना तक उनके वश का नहीं रह गया है। चलते ही चले जा रहे हैं, निर्लक्ष्य, बदहवास, चम्पारण्य के सुनसान और खूखार जंगलों में । उनके अत्यन्त निजी
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