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समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तेषाम् । समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः समानेन वो हविषा जुहोमि ।।
समानी व आकूतिः समाना हृदयानि वः।
ममानमस्तु वो मनो यथा व सुसहासति॥ समस्त लोकाकाश इस ऋचागान से आप्लावित हो गया। सहसा ही फिर जयध्वनियां गूंज उठी :
परम सत्ताधीश अर्हन्त जयवन्त हों त्रैकाल्येश्वर महाकाल पुरुष जयवन्त हों
वेद पुरुष महावीर जयवन्त हों फिर आदेश सुनायी पड़ा :
'निखिल की माँ भगवती चन्दन बाला, शास्ता के प्रथम धर्मचक्र को संचालित करें! कलिकाल के धर्म-धुरन्धर अनुशास्ता इन्द्रभूति गौतम द्वितीय धर्मचक का संचालन करें !'
और अगले ही क्षण शची के कन्धे पर हाथ रख, शक्रेन्द्र द्वारा वाहित महासती चन्दन बाला गन्धकुटी के सोपान उतर आयीं। माँ की उस धीरगामी मार्दवी भंगिमा से प्राणि मात्र अथाह ऊष्मा में आश्वस्त हो गये । श्रीमण्डप के पूर्व द्वार में, ठीक शास्ता के सम्मुख बिराजमान हिरण्य-रलिम धर्मचक्र को जब माँ ने हाथ उठा कर चक्रायमान कर दिया, तो समवसरण की सभी दिशाओं और वीथियों में बिराजित शत-शत धर्मचक्र चलायमान हो उठे । अनेक प्रभामडण्लों की श्रेणियाँ एक साथ सारे समवरण में कौंध उठीं । जैसे परम सत्य का सुदर्शन चक्र, अज्ञान के जड़ीभूत ध्वान्तों को आरपार चीरता हुआ, लोकत्राण के लिये दिगन्तों तक व्याप्त हो गया।
उसके अनुसरण में अनुशास्ता गौतम ने, द्वितीय धर्मचक्र का संचालन किया । और धर्मचक्रों की एक अन्तहीन परम्परा चारों दिशाओं में, इतिहास में, भूगोल में, खगोल' में एक बारगी ही धावमान दिखाई पड़ी। __ अनगिनती श्रावक-श्राविका, श्रमण-श्रमणी, आबाल-वृद्ध-वनिता नर-नारी,श्री भगवान के अनुग्रह से उन्मेषित हो उठे। वे श्रीमण्डप की विशाल प्रांगण-भूमि में उमड़ आये । प्रभु ने उद्बोधन और त्राण का हाथ उठा दिया । वे सब आँसुओं में पिघल कर गन्धकुटी के पादप्रान्त में नमित हो गये । श्रीगुरुकृपा से वे क्षण मात्र में ही संचेतन हो उठे। वे विचक्षण व्रती हो गये। उनकी भृकुटि में धर्मचक्षु उजल उठा । वे अनायास ध्यानस्थ हो गये।
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