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'जानो अनुशास्ता, जो इस संचेतना को खण्ड रूप से जी पाते हैं, वे अणुव्रती हैं। जो इसमें अखण्ड जीते हैं, वे महाव्रती हैं ।जो धर्म का श्रवण कर, उसे जीने के प्रयासी हैं, वे श्रावक हैं। जिनकी चर्या ही ऐसी हो, कि उसमें धर्म, अनुक्षण कर्म हो कर प्रवाहित हो, वे श्रमण हैं । श्रमण अपने हर एवास में सावधान है ।हवा, पानी, माटी तक को उनकी अनुमति से ही ग्रहण करता है । उसका जीवन निरन्तर आत्माहुति का यज्ञ होता है।
__'देवान प्रिय गौतम, धर्म के संवहन के लिये, संघ अनिवार्य है । संघ ही महासत्ता का समष्टिक प्रतिनिधि है । यह संघ स्वभावतः चार आयामों में संघटित है। श्रावक और श्राविकाएँ, श्रमण और श्रमणियाँ । श्राविका और श्रमणी-संघ की अधिष्ठात्री हों, महासती चन्दनबाला । श्रावक और श्रमण-संघ के अधिष्ठाता पद पर तुम नियुक्त हुए, गौतम । यह चतुर्विधि धर्म-संघ ही आगामी कलिकाल में जिनेश्वरों के 'वस्तु-स्वभावो धम्मो' का संवहन करेगा। शास्ता अपने आत्महवन के हुताशन पर इस धर्म-संघ को प्रस्थापित करते हैं ।
___ 'भगवती चन्दनबाला, भगवद्पाद गौतम, इस चतुआयामी संघ के साथ, महावीर के युग-तीर्थ का नेतृत्व करें ।'
और जयध्वनि गुंजायमान हुई : 'त्रिलोक और त्रिकाल के अधीश्वर.परम परमेश्वर, तीर्थंकर महावीर जयवन्त हों।'
और अनुसरण में असंख्य कण्ठों से जयकारे गूंज उठीं। 'आदेश, आदेश, हे कलिकाल के परित्राता । जीव मात्र के एकमेव हितंकर, और आत्म-स्वरूप भगवान !' ___ 'महासत्ता के इस परम मुहूर्त में, एकल महावीर सकल हो गया, गौतम । व्यष्टि समष्टि हो गई। व्यक्ति स्वयम् समाज हो गया। पिण्ड ब्रह्माण्ड हो गया। अवान्तर सत्ता की इस द्वंद्व-खेला के बीच द्वंद्वातीत महासत्ता स्वयम् विचरण करेगी । एकमेव पुरुष अनन्त धाराओं में प्रवाहित होंगे। _ 'यह संघ ही अर्हत् का वह ब्रह्माण्डीय शरीर है। इस में तुम सब एकाग्र, एकाकार हों रहो । सुनो, सुनो, दसो दिशाओं से ऋग्वेद गा रहे हैं :
सङ्गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम । देवा मागं यथा पूर्वे सजानाना उपासते ॥
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