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________________ १०४ 'जानो आयुष्यमान, पदार्थ और विश्व के स्वभाव को साक्षात् करना होगा । उनकी संगति में जीना होगा । कण-कण, जन-जन के प्रति निरन्तर प्रस्तुत और खुले रहना होगा । अपने और सृष्टि के हर भाव, स्पन्दन, वृत्तिप्रवृत्ति, क्रिया-प्रतिक्रिया के प्रति संचेतन रहो । अनुक्षण अप्रमत्त, जागृत भाव से जियो । यही मार्ग है ।' 'लेकिन तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने तो चतुर्याम धर्म मार्ग का प्रवर्तन किया था। उन्होंने लोक को आचार संहिता प्रदान की थी। वह क्या मार्ग नहीं प्रभु ?' 'आचार जब संहिता बनता है, विधि-निषेध में बद्ध होता है, तो वह अन्ततः जड़ रूढ़ी हो कर रह जाता है। पार्श्व के चतुर्याम धर्म की भी वही गति हुई। वह कुछ श्रमणों और श्रेष्ठियों की साठगाँठ का सौदा हो कर रह गया । आचार की रेखा, स्वयम् सत्ता में से प्रतिक्षण जीवन्त प्रकाशित हो रही है । निःसन्देह सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य का सर्वतोमुखी आचार मार्ग जिनेश्वरों ने निर्धारित किया है । पर वह कोई बाह्य नैतिक विधान नहीं । ये स्वयंसत्ता में से उद्भूत, प्रवाहित प्रतिज्ञाएँ है । ये पालने की चीज़ नहीं, जीने की चीज़ है । 'सुनो देवानुप्रिय, जो स्वभाव है, वह बलात्कार कैसे हो सकता है, वह स्वैराचार ही हो सकता है । सर्व के प्रति अनुक्षण संचेतन भाव से जीना ही, सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य को अनायास प्रतिपल जीना है । यह नैतिकता नहीं, आत्मिकता है । यह विधि - निषेध नहीं, आत्म-सम्वेद है । यह निरा तत्त्व नहीं, आत्मत्व है, निजत्व है, स्वयम् अस्तित्व है । यही अमरत्व है । 'इसी से कहता हूँ, गौतम, एक क्षण के लिये भी प्रमाद न कर । प्रमाद ही मृत्यु है । निरन्तर संचेतन भाव से जीना ही, सर्व के प्रति हर समय सत्य, अहिंसा, अचौर्य, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य में जीना है । संचेतना, संचेतना, अखण्ड संचेतना, अविकल संचेतना । इसी में जिनेश्वरों द्वारा कथित सारे अणुव्रत और महाव्रत समाये हैं । यही एक मात्र सच्चा व्रत है । अन्य सब व्रताभास और बाह्याचार है । उससे प्रदर्शन और पाखण्ड निपजता है । 1 'व्रती वह गौतम, जो विचक्षण हो । विचक्षण वह गौतम, जिसका चक्षण विशिष्ट हो, एकाग्र हो, सम्पूर्ण हो । जो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग में जिये । जो अबाध, अनाहत संचेतना में जिये । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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