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'उस अन्य के स्वभाव से संगत जीना है। उसके साथ सुर-सम्वाद में जीना है। उसके छन्द लय ताल में, अपने छन्द लय ताल को मिला कर जीना है। यही पूर्ण प्रेम है, यही पूर्ण भोग है।'
'हर आत्मा पूर्ण भोग, नित्य संभोग में ही तो जीना चाहता है, नाथ । प्राण-प्राण के वल्लभ, प्राण-प्राण की दाह और चाह बोल रहे हैं ।'
'हां गौतम, परस्पर पूर्ण भोग, अटूट और नित्य सम्भोग । केवली उसी परम रस के आस्वादक और भोक्ता हैं। ऐसे भोग में हम परस्पर का उपयोग नहीं करते, शोषण नहीं करते, परस्पर को उपलब्ध होते हैं । परस्पर को सम्पूरित करते हैं, आप्यायित करते हैं, कृतार्थ करते हैं।'
'यह किस प्रक्रिया से सम्भव है, प्रभु ?'
'प्रकृति और सृष्टि को पूर्ण संचेतना से देखो और जानो, गौतम । तो पाओगे कि चेतन-अचेतन हर सत्ता यहाँ स्वभाव से ही आत्मदानमयी है। सब अपने को अन्यों के प्रति दे रहे हैं । मानो दे कर ही वे जी सकते हैं, सुखी, सार्थक और मुक्त हो सकते हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश और वनस्पतियां। लताओं से लिपटे वृक्ष-वन । सारे धातु, सारे खनिज, जलचर, थलचर, नभचर प्राणि मात्र किसी न किसी रूप में अपना आत्मदान करके ही सर्व के साथ एकात्म्य भाव से जी रहे हैं। यहाँ तक कि प्राणियों के बीच जो यौन लालसा है, वह भी आत्मदान की ही एक प्रकृत पुकार है। समाज, समुदाय, विश्वजीवन इसी संयुक्ति में से सम्भव है । जंगल हैं, पशु हैं, कीट-पतंग हैं, कि मानवलोक जीवन-धारण करता है । सभी निकाय, हम सब, यहां एक दूसरे के लिये अनिवार्य हैं। सह-अस्तित्व से ही स्व-अस्तित्व सम्भव है।'
'ओह प्रभु, निखिल के साथ अद्भुत् तादात्म्य अनुभव कर रहा हूं।'
'वीतराग, निष्काम, नैसर्गिक आत्मदान । ये फूटते झरने, ये पर्वत, नदियाँ, सागर । पंखियों कूजते आकाश । ऋतु-वातास, हवा-उजास । वसन्त की वनश्री। कूकती कोयल । बरसते बादल । कड़कती बिजली । हर नर-नारी के प्राण में अपने को दे डालने की व्याकुलता । वीतराग, निष्काम, नैसर्गिक आत्मदान । सारी सृष्टि में निर्सग से ही, परस्पर आत्मदान का यह यज्ञ निरन्तर चल रहा है । इसी उमड़न में से सृष्टि का उद्भव, आविर्भाव और विकास है । इसी में उसकी सम्पूर्ति और मुक्ति है।'
लेकिन यह यज्ञ हर पल भंग हो रहा है, भन्ते । यह कैसे अखण्ड रहे ?'
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