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'यह व्यवस्था, सत्ता के स्वभाव पर आधारित नहीं। राज्य और वाणिज्य, परम सत्ता और उसकी सम्पत्ति पर बलात् अधिकार करते हैं । ये कब्जा करते हैं। ये सत्ता को कैद करते हैं । उसकी हत्या करते हैं । उसके स्वातन्त्र्य का अपहरण करते हैं। तो ऊँच-नीच, धनी-निर्धन, शासक-शासित, शोषक-शोषित के भेदों और वर्ग-विग्रहों का अन्त नहीं। पूरा इतिहास वही दुश्चक्री शृंखला है । सत्ता के सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान के साथ, स्वभाव के तारतम्य में जीने से जो व्यवस्था प्रतिफलित होगी, वही इस दुश्चक्र को तोड़ सकेगी । वही इतिहास को उलट सकेगी । वही टिकाऊ होगी । सत्ता का मौलिक समत्व, जब सही दर्शन, ज्ञान, चर्या द्वारा जन-जन में उदित हो उठेगा, तो समाज और संसार की व्यवस्था आपोआप ही सम्वादी हो उठेगी।'
'इसे जीवन के स्तर पर सीधा कहें, स्वामिन् ।'
'हम वस्तु और व्यक्ति का आदर नहीं करते, उसे प्रेम नहीं करते, उसका उपयोग करते हैं। अपने अहं-रागजन्य स्वार्थों की पूर्ति के लिये। यही शोषण है । जीवों में परस्पर उपग्रह हो सकता है, शोषण कैसे हो सकता है। वह स्वभाव नहीं, उसकी हत्या है । _ 'मैं कहता हूँ, गौतम, हम अपने को केन्द्र में रख कर, सर्व को परिधि में रखते हैं । हम एकमेव भोक्ता होकर रहते हैं, और सर्व को भोग्य मानते हैं । मेरा भोजन, मेरा वसन, मेरा शयन, मेरा मैथुन, मेरा कीर्तन, मेरा धन सब से ऊपर और आगे है । उसकी प्राप्ति के लिये अन्य सब साधन हैं । वस्तु और व्यक्ति मात्र यहां परस्पर एक दूसरे के उपयोगी साधन हो गये हैं !'
'मेरी आँखें खुल गई, भन्ते । मैं इतिहास की पूरी सड़ांध को आरपार साफ़ देख रहा हूँ।' ___ 'वस्तुतः यहाँ कोई किसी का साधन नहीं. गौतम । हो नहीं सकता। वह स्वभाव नहीं । हम साधन बनने और बनाने के भ्रम में जीते हैं, कि नष्ट-भ्रष्ट होते हैं। अपार दुःखों की सृष्टि करते हैं। सारा लोक असुन्दर हो उठता है।'
'मैं कहता हूँ, गौतम, यहां हर सत्ता, फिर वह चेतन हो कि अचेतन हो, स्वयम् ही अपना साध्य है । यहां मूलतः हम परस्पर एक दूसरे के साधन नहीं, साध्य ही हो सकते हैं। अर्थात् उस अन्य को भी उसी के लिये उपलब्ध करना है, तभी उसे अपने लिये भी हम उपलब्ध कर सकेंगे। अन्य का स्वार्थ ही मेरा स्वार्थ हो जाये । तो सब परमार्थ हो जाये ।'
'इस जीवन-प्रक्रिया को और भी स्पष्ट कहें, भगवन् ।'
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