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से राग हो जाये, तो जो नवीन आ रहा है, उससे हम वंचित रह जायें । राग आते ही, वस्तु और व्यक्ति से विच्छेद अनिवार्य है, गौतम नित नव्यता ही जीवन है, गौतम । राग है, जड़ विगत पर्याय से चिपटे रहना । वही दुःख है । वही मृत्यु है ।'
'सत्ता के साथ, अटूट संयोग में जीना चाहता हूँ, भन्ते । हर प्राणी यही तो चाहता है । सबके साथ सदा जुड़ाव में जीना ।'
'प्राणी मात्र की वह जिजीविषा परम सत्य है । पर अज्ञानजन्य मोह के कारण वह सम्पूर्ण जीवन नहीं जी पा रहा है । और अपूर्ण जीवन उसे सदा आर्त्त और तृष्णाकुल बनाये रखता है । सत्ता के साथ सम्वाद में जीना ही सम्पूर्ण जीना है । ऐसा सम्वादी अनायास वीतरागी होगा ही । क्योंकि सत्ता स्वयम् ही वीतराग है । कण-कण, जन-जन अपनी सत्ता में स्वतन्त्र हैं । वे एक-दूसरे में हस्तक्षेप नहीं करते, नहीं कर सकते। फिर भी हम बलात् हस्तक्षेप करते हैं । तो हाथ लगता है विग्रह, कलह, संघर्ष । रक्तपात, महायुद्ध | हिंसा का दुश्चक्र । यह पूरा इतिहास ।
'जानो गौतम, व्यक्तियों और वस्तुओं के बीच का मौलिक सम्बन्ध, राग का नहीं, परस्पर अवकाश और अवगाहन का है । हम एक दूसरे को अवकाश दें । हम सह-अस्तित्व में जियें और स्वतन्त्र रहें । अवकाश यह कि, हम सब सबको समायें । प्रतिरुद्ध न रहें, टकरायें नहीं, अव्याबाध मार्दव से एक-दूसरे को परस्पर में समाते जायें । परस्पर के स्वभावगत स्वातन्त्र्य को अक्षुण्ण रखते हुए । यही प्रेम है । यही सर्व के साथ अटूट संयोग में जीना है ।'
'लेकिन यह तो वैयक्तिक सुख और मुक्ति का मार्ग हुआ, भगवन् । समाज में जो अनेक विग्रह हैं, संघर्ष हैं, वैषम्य हैं, उनका निरसन कैसे हो, स्वामिन् ?'
'समाज भी तो सत्ता का ही एक सामुदायिक रूप है। हर व्यक्ति एक सत्ता है, हर वस्तु एक सत्ता है, उनका समुदाय एक विराट सत्ता है । यदि जन-जन सत्ता-स्वरूप के साथ सम्वाद में जीने की कला सीख जायें, तो अर्थ, समाज, राज के सारे वैषम्य अनायास समता में परिणत हो जायें । सत्ता के साथ सम्वाद में जीना ही, समत्व में जीना है । सत्ता अपने मूल में ही समत्व में विराजमान है | अपने अहंजन्य राग - ममकार, अधिकार से हमने उसे विषम और व्यभिचरित कर दिया है । '
'आज के आर्यावर्त में यह वैषम्य पराकाष्ठा पर है, भगवन् । धर्म लुप्तप्राय है । इसका निराकरण कैसे हो, प्रभु ?'
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