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'उस सत् का लक्षण कहें, स्वामिन् ।'
'उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्तं सत्वम् । वह सत् एकबारगी ही उत्पाद, व्यय, ध्रुवत्व ये युक्त है। वह प्रतिक्षण उत्पन्न हो रहा है, व्यय हो रहा है, फिर भी सदा वही है । हर व्यक्ति, हर वस्तु, हर पदार्थ की यही मौलिक स्थिति है। यही सत् है, गौतम ।'
'धर्म क्या है, भन्ते?' 'वस्तु स्वभावो धम्मो । वस्तु का स्वभाव ही धर्म है, देवानुप्रिय।' 'वह धर्म जीवन में कैसे आये, भन्ते ?'
'वस्तु का जो उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक स्वभाव है, उसके अनुसरण में जीना ही, धर्म को जीना है।'
'इसे स्पष्ट करें, देवार्य ।'
'प्रत्येक व्यक्ति और वस्तु में अनुक्षण कुछ बीत रहा है, कुछ नया आ रहा है, कुछ है जो सदा वही है । तब आवश्यक है कि हर अन्य वस्तु और व्यक्ति के साथ, अपने सम्बन्ध और व्यवहार में, हम उसके स्वभाव के साथ तन्मय जियें। उसमें जो बीत रहा है, उसके साथ हम बीतें, उसमें जो नया आ रहा है, उसके साथ हम भी नये हों, उसमें जो ध्रुव है, उसके साथ हम ध्रुव रहें। मेरा भी यही स्वभाव है, अन्य का भी यही स्वभाव है । स्वभावों की इस सम्वादिता में जीना ही, धर्म को जीना है । वही जीवन का सौन्दर्य है, संगीत है, आनन्द है, मोक्ष है, आयुष्यमान् ।'
'इस धर्म और मोक्ष के मार्ग को सुनिर्धारित करें, भगवन् ।'
'सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः । वस्तुओं और व्यक्तियों को सम्यक् देखना, सम्यक् जानना, उनके साथ सम्यक् सम्बन्ध और व्यवहार में जीना, यही मोक्ष-मार्ग है। जो इस प्रकार जीता है, वह अनुपल मुक्त होता रहता है। वह जीवन में ही मोक्ष को जीता है। वह जीवन्मुक्त है ।'
'इसका अर्थ हुआ, वीतराग जीवन जीना । लेकिन राग न हो, तो कोई जीवन क्यों जिये, कैसे जिये? राग ही तो जीवन है, भन्ते प्रभु ।' ___'राग जीवन नहीं, मृत्यु है। राग होते ही वस्तु हाथ से निकल जाती है. व्यक्ति से वियोग हो जाता है । जीवन की अनाहत धारा, आहत हो जाती है। ज्ञायक और ज्ञेय, भोग्य और भोक्ता, दोनों ही अनुक्षण बदल रहे हैं । तो उनके बीच का सम्बन्ध भी अनुक्षण नवीन ही हो सकता है । अवस्था विशेष
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