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'भन्ते, तत्त्व क्या है ?' 'अर्हत् तत्त्व नहीं कहते, अस्तित्त्व कहते हैं, पदार्थ कहते हैं, गौतम ।' 'तो वही कहें, नाथ ।' 'पदार्थ उत्पन्न होता है।' 'भन्ते, पदार्थ उत्पन्न होता ही जायेगा, तो वह लोक में कैसे समायेगा ?' ‘पदार्थ व्यय होता है।'
'भन्ते, यदि पदार्थ व्यय होता है, तो वह उत्पन्न होगा और नष्ट हो जायेगा। फिर शेष क्या रहेगा ?'
'पदार्थ ध्रुव है, देवानुप्रिय।' 'भन्ते, जो उत्साद-व्यय धर्मा है, वह ध्रुव कैसे होगा? क्या उत्पाद, व्यय, और ध्रौव्य में विरोध नहीं ?'
'वह विरोध नहीं, विरोधाभास है, गौतम । वह द्रव्य का अनैकान्तिक स्वभाव है, गौतम । यही उसकी मौलिक स्थिति है । द्रव्य एक आयामी नहीं, बहु आयामी है। वह अनन्त गुण और अनन्त पर्याय-धर्मा है। शास्ता उसे यथावत् देखते हैं, यथावत् जानते हैं, यथावत् कहते हैं। वे अनुमानी नहीं, प्रत्यक्ष ज्ञानी हैं। इसी से वे पदार्थ की व्याख्या नहीं करते, परिभाषा नहीं करते। वे उसे साक्षात् करते हैं। और उसी प्रत्यक्ष दर्शन-ज्ञान को कहते हैं । उनके लिये द्रव्य स्वयम् ही दर्शन, ज्ञान, चारित्र्य और कथन हो गया है । सत्ता स्वयम् उनके भीतर से ध्वनित होती है, शब्द में अवतरित हो कर, सर्व को बोधगम्य होती है। वह सत्ता एकमुखी नहीं, नानामुखी है । वह सरल नहीं, संकुल है। वह वियुक्त नहीं, संयुक्त है। इसी से विरोधाभासी होते भी, वह स्वयम् में अविरोधी और समन्वित है । वह सर्व समावेशी है, सर्वतोमुखी है ।'
'ऐसा लगता है, प्रभु, कि जैसे यह सब सामने खुल रहा है। जैसे ताले टूट रहे हैं, जंजीरें गिर रही हैं । पर्दे हट रहे हैं, द्वार खुल रहे हैं।'
'वही वही, गौतम । तुम अनुगृहीत हुए, तुम धर्म-चक्षु हुए, सौम्य ।' 'लेकिन लोकजन तो क्रमशः समझना चाहेंगे, स्वामिन् !' 'पूछ, गौतम।'
'आपने द्रव्य का स्वरूप कहा। उसका लक्षण कहें, भन्ते। उसकी सब से बड़ी पहचान क्या ?'
'सल्लक्षणं द्रव्यं । द्रव्य का लक्षण सत् है । वह है। और जो है, वह सदा है। उसका विनाश नहीं, अभाव नहीं।'
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