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सहसा ही परम आदेश सुनाई पड़ा :
'नहीं, नहीं, त्रिभुवन-सुन्दरी माँ की केश छाँव में लोक के प्राणि मात्र आश्रय पायेंगे। यह सौन्दर्य पार्थिव नहीं, दिव्य है। यह त्याग और भोग से ऊपर है। यह शुद्ध और शाश्वत सौन्दर्य है । इसमें ममता ही अनायास समता हो उठती है । मोह ही न जाने कब मुक्ति हो उठता है । यह सौन्दर्य चिरकाल अक्षुण्ण रहेगा, गौतम ।'
भगवान चुप हो गये । उनके पद्मासन के गोपन में से अनायास पिच्छोकमण्डलु तैर आये । सम्मुख प्रस्तुत हो कर, महा भिक्षुणी चन्दनबाला ने उन्हें नतशिर हो कर शिरोधार्य किया। फिर वे भगवान को तीन प्रदक्षिणा दे कर, प्रवर्तिनी के आसन पर विराजमान हो गईं।
भूतभावन भगवान महावीर जयवन्त हों
भूतभावनी भगवती चन्दनबाला जयवन्त हों धर्म-पर्षदा स्थगित हो गई । भगवान गंधकुटी से उतर कर, चैत्यवृक्ष के तले स्थित 'देवच्छन्दक' में विश्राम करने चले गये।
अगले प्रातःकाल की धर्म-पर्षदा में भगवान को किसी ने आते न देखा । वे अनायास ही ऊर्ध्व में उत्थिष्ठ दिखाई पड़े । भगवद्पाद गौतम प्रभु के कमलासन की तीन प्रदक्षिणा दे कर, सम्मुख प्रणिपात में नत हो रहे । अखण्ड मौन व्याप रहा । सहसा ही अनुशास्ता गौतम ने निवेदन किया :
'कलिकाल के तीर्थंकर महावीर, अपने युग-तीर्थ का प्रवर्तन करें, भगवन् ।' नीरवता गहराने लगी । और वहीं एक गहन नाद में तरंगित हो उठी :
'उप्पनने इ वा, विगमे इ वा, धुवे इ वा उप्पत्ने इ वा, विगमे इ वा, धुवे इ वा
उप्पन्ने इ वा, विगमे इ वा, धुवे इ वा' प्रभुपाद गौतम को स्मरण हो आया : मध्यम पावा के यज्ञ-मण्डप में हठात् यही ध्वनि तो गुंजित सुनाई पड़ी थी । ओह, तो प्रभु का साढ़े बारह वर्ष व्यापी अखण्ड मौन, सर्वप्रथम इसी त्रिपदी में फूटा था ? · · ·और गौतम इस नव्य गायत्री में गहराने लगे । सृष्टि का स्रोत, और उसकी सारी अभिव्यक्तियाँ, तमाम आयाम इन शब्दों में खुलने लगे। स्वयम् गौतम तो शब्दातीत भाव से प्रबुद्ध हुए । पर सर्वजन के प्रतिबोध और कल्याण के भाव से प्रेरित हो कर उन्होंने प्रश्न किया :
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