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________________ ९६ नहीं ? क्या नारायणी, नारायण को ही अर्द्धांगिनी नहीं ? ब्राह्मणों ने अपनी भोग- लालसा और प्रभुता के दुर्ग को सुदृढ़ बनाने के लिये, नारी को उसकी मौलिक महिमा से पदच्युत किया है। एक ओर माँ और भगवती कह कर वे उसकी पूजा करते हैं । दूसरी ओर जीवन में वे उसे अपनी वासना - दासी बना कर, उसको अनेक विधि - निषेधों के कारागार में बन्दिनी बना कर रखते हैं । 'शास्ता पुरुष-सत्ताक सभ्यता के उस नागपाश को तोड़ने आये हैं । वे नारी को उसकी मौलिक मुक्त भगवत्ता के आसन पर आसीन करने आये हैं । ' 'प्रबुद्ध हुआ, भगवन् । अपूर्व है यह विधान, हे तारनहार । लेकिन महाश्रमण तथागत गौतम भी स्त्री प्रव्रज्या का निषेध करते हैं । उनके पट्ट गणधर आनन्द ने कई बार उनसे अनुरोध किया, कि अनेक महारानियाँ और राजबालाएँ तथागत की भिक्षुणियाँ होने की प्रार्थिनी हैं । पर शास्ता गौतम बुद्ध ने कोई उत्तर न दिया । वज्रेना का हाथ उठा कर मौन हो गये । . . . ' 'देवानुप्रिय गौतम, अर्हत् केवली आप्तकाम होते हैं । वे काम और कामिनी से भयभीत नहीं । वे नारी से पलायन नहीं करते । वे उसकी परम कामिनी आत्मा का वरण करते हैं । निगंठ नातपुत्त उसे, निग्रंथ भाव से अंगीकार करते हैं । ' तथागत बुद्ध महाकारुणिक हैं, गौतम | देखोगे, नारी की मुमुक्षा से वे अनुकम्पित हुए बिना न रह सकेंगे । और एक दिन स्त्री उनके धर्मसंघ में भिक्षुणी हो कर रहेगी, देवानुप्रिय । स्वभाव के अधिकार से कौन किसी को वंचित कर सकता है । ' और सुनो गौतम, जिनेश्वरी सरस्वती के कवियों ने आदिकाल से मुक्ति को भी रमणी कह कर गाया है। परम तत्त्व रमण ही है । परम ऊर्जा रमणी ही है। पर रमण नहीं, आत्म- रमण । पर- रमणी नहीं, आप्त- रमणी । ऐसी उदार और उन्मुक्त है, जिनेश्वरों की मर्यादा । वे नैतिक प्रवचनकार नहीं । वे स्वभाव के साक्षात्कार हैं । सो वे निग्रंथ सहज ही संयत, संवेगवान, स्वैराचारी हैं । विधि - निषेध नहीं, उन्मुक्त आत्म-विलास, यही जिनों का एकमेव प्राप्तव्य है, गौतम । संयम उस मुक्ति की सहज यति है, उसका मुक्त छन्द है, उसकी लयकारी है । हे ब्राह्मणोत्तम गौतम, सविता और सावित्री के उस अटूट युगल को साक्षात् करो यहाँ । मारे भेदों और निषेधों से परे । और धर्म के नव मनवन्तर का वहन करो, गौतम 1 ।' प्रव्रज्या के नियमानुसार, देवी चन्दनबाला के समक्ष केश- लुंचन के लिये सुवर्ण पात्र प्रस्तुत हुआ । देवी दोनों हाथ उठा कर उस भुवन मोहन केशपाश को उखाड़ फेंकने को प्रस्तुत हुईं । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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