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अनुत्तर पुरुष निरुत्तर है, स्वयम् लीन है । यही उसका उत्तर है। 'भगवती भगवान के वरण को प्रस्तुत है, भन्ते स्वामिन् ।'
रोमांचन से चन्दना विदेह, विभोर हो रही । आँखें मुंद गईं । बड़ी-बड़ी मुद्रित पलकों को बरौनियों में बिजली बरस जाने को विकल थमी है। ___ 'माँ आ गई, हे त्रिलोक-पिता परमेश्वर । तुम्हारी सृष्टि को अपने गर्भ में धारण करने के लिये ।'
तीर्थंकर के प्रभामण्डल में एक विद्युल्लेखा टंकार उठी । जल, थल, आकाश, प्राणि मात्र हिल उठे । हठात् सुनाई पड़ा :
'निग्रंथ और निरावरण हो कर सम्मुख आओ, चन्दन !'
चन्दना नतशीश हो गई । मुंदी बरौनियों से गालों पर आँसू बहते आये। जनम-जनम की ग्रंथियाँ जैसे एक साथ गल आईं।
'दिगम्बरी हो कर सम्मुख आओ, माँ । सकल चराचर तुम्हारे स्तन-पान को तरस रहा है !'
और चन्दना के ऊपर से जैसे एक अन्तहीन वसन उतरता चला गया। ढेर-ढेर श्वेत वसन नीचे गिरता हआ, चारों ओर नदियों की तरह फैल चला। स्वयम् सत्ता के यज्ञ-हुताशन के बीच, लोकालोक ने दिगम्बरी माँ के दर्शन किये । माँ का वह अनन्त चीर आँचल बन कर फैल गया । निखिल को अपनी ऊष्मा में ढाँप कर, वह आँचल अकाल-पुरुष की नूतन सृष्टि झेलने को प्रस्तुत हो गया।
'अर्हत् आप्यायित हुए, देवी !' 'किंकरी कृतार्थ हुई, नाथ।' 'किंकरी नहीं, माहेश्वरी। जगदीश्वरी। निखिल की महारानी-माँ ?'
चन्दना सधकुटी के सोपानों पर साष्टांग प्रणिपात में ढलक पड़ीं। वे फूट कर रो पड़ी।
'अपने लिये नहीं, मेरे लिये नहीं, प्राणि मात्र के लिये रोओ, चन्दन । हर दुखिया के आंसू में रोओ, चन्दन। हर पीड़ित के हृदय का चन्दन-लेप हो जाओ, चन्दन ।'
'नाथ, वह सब तुम्हारे हाथ है।'
सोपान पर घुटनों के बल उठ कर, चन्दना अंजलि की तरह प्रभु की ओर उठी रह गई।
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