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________________ ९४ अनुत्तर पुरुष निरुत्तर है, स्वयम् लीन है । यही उसका उत्तर है। 'भगवती भगवान के वरण को प्रस्तुत है, भन्ते स्वामिन् ।' रोमांचन से चन्दना विदेह, विभोर हो रही । आँखें मुंद गईं । बड़ी-बड़ी मुद्रित पलकों को बरौनियों में बिजली बरस जाने को विकल थमी है। ___ 'माँ आ गई, हे त्रिलोक-पिता परमेश्वर । तुम्हारी सृष्टि को अपने गर्भ में धारण करने के लिये ।' तीर्थंकर के प्रभामण्डल में एक विद्युल्लेखा टंकार उठी । जल, थल, आकाश, प्राणि मात्र हिल उठे । हठात् सुनाई पड़ा : 'निग्रंथ और निरावरण हो कर सम्मुख आओ, चन्दन !' चन्दना नतशीश हो गई । मुंदी बरौनियों से गालों पर आँसू बहते आये। जनम-जनम की ग्रंथियाँ जैसे एक साथ गल आईं। 'दिगम्बरी हो कर सम्मुख आओ, माँ । सकल चराचर तुम्हारे स्तन-पान को तरस रहा है !' और चन्दना के ऊपर से जैसे एक अन्तहीन वसन उतरता चला गया। ढेर-ढेर श्वेत वसन नीचे गिरता हआ, चारों ओर नदियों की तरह फैल चला। स्वयम् सत्ता के यज्ञ-हुताशन के बीच, लोकालोक ने दिगम्बरी माँ के दर्शन किये । माँ का वह अनन्त चीर आँचल बन कर फैल गया । निखिल को अपनी ऊष्मा में ढाँप कर, वह आँचल अकाल-पुरुष की नूतन सृष्टि झेलने को प्रस्तुत हो गया। 'अर्हत् आप्यायित हुए, देवी !' 'किंकरी कृतार्थ हुई, नाथ।' 'किंकरी नहीं, माहेश्वरी। जगदीश्वरी। निखिल की महारानी-माँ ?' चन्दना सधकुटी के सोपानों पर साष्टांग प्रणिपात में ढलक पड़ीं। वे फूट कर रो पड़ी। 'अपने लिये नहीं, मेरे लिये नहीं, प्राणि मात्र के लिये रोओ, चन्दन । हर दुखिया के आंसू में रोओ, चन्दन। हर पीड़ित के हृदय का चन्दन-लेप हो जाओ, चन्दन ।' 'नाथ, वह सब तुम्हारे हाथ है।' सोपान पर घुटनों के बल उठ कर, चन्दना अंजलि की तरह प्रभु की ओर उठी रह गई। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003847
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1975
Total Pages410
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size7 MB
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