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चन्दना की पर्त-पर्त में प्रकम्पन की हिलोरें दौड़ गई।
.: : तुम मुझसे बोले बिना ही चले गये । कण-कण से बोल रहे हो आज । और मैं तुम्हारी कोई नहीं, कहीं नहीं ? मेरे बिना भी तुम बोल सके ? मेरा क्या मूल्य ? और जो कण-कण का हो गया, वह मुझे क्यों पहचानेगा ? तुम्हारे विराट समवसरण में, एक अनजान स्त्री की क्या हस्ती ?
'नहीं, मैं नहीं आऊँगी वहाँ ! मैं नहीं पुकारूंगी तुम्हें · · · !' ___.. और चन्दना एक गहन माधुर्य की मूर्छा में डूबती-उतराती चली गई । · ·एकाएक उसे अपने नाभि-कमल में सुनाई पड़ा :
'चन्दन, तुम प्रतीक्षित हो । महावीर को अनाहत वाणी थम गई है । वह सृष्टि होने के लिये तुम्हारे आँचल की प्रतीक्षा में है।' 'ओह, तुमने मुझे पुकारा ! मैं · · · मैं आई. . .'
और वह दौड़ी, फिर रेलिंग पर चढ़ कर यमुना में कूद जाने के लिये। ज्योंही उसने छलाँग मारी, तो शक्रेन्द्र के विमान ने उसे झेल लिया। शची ने उसे अपनी छाती से चाँप लिया। और वह पुष्पक विमान हवाओं को चीरता, आकाश को तराशता, विपुलाचल की ओर उड़ा जा रहा है।
'भगवन्, वैशाली की राजबाला चन्दना, श्रीचरणों में उपस्थित है।'
अधर पर आसीन अर्हत् मौन, निरुत्तर। मौन गहराता गया। सारा समवसरण स्तब्ध । अपार चुप्पी । दिगन्त तक व्याप्त ।
हँस की पाँखों जैसा उज्ज्वल परिधान । दोनों कन्धों पर लहराते मुक्त केशों का वैभव एड़ियाँ चूम रहा है । पूनम के उगते चन्द्रमा-सा तपस्कान्त विशाल चेहरा। अर्धोन्मीलित तल्लीन दृष्टि । चन्दन बाला एकाग्र उन्मुख, प्रभु की उस निश्चल मुख मुद्रा को निहारती रह गईं । हाथ जोड़े नहीं, हाथ उठाये । सर झुकाये नहीं, उन्नत शीश । उद्यत्, उस रक्त-कमलासन की एक पंखुरी हो जाने के लिये। आरपार, खाली, खुली, फैली। विश्वम्भर से भर उठने के लिये।
इन्द्रभूति गौतम ने उस अनाहत मौन को तोड़ा : 'भगवती आ गईं, भगवान ?' अर्हत् चुप, मौन, अकम्प, निश्चल । 'अर्द्धनारीश्वर की अर्धांगिनी, उन्हीं के भीतर से प्रकट हो गई ?'
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