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होगा। नहीं आते बाहर, तो मेरे यहाँ होने का प्रयोजन क्या ? फिर नारी का अस्तित्व किस लिये ? . . .'. - अटारी की रेलिंग पर दोनों हथेलियों में चिबुक टिकाये चन्दना, सामने फैले यमुना के विस्तार को एकटक देख रही है । लहरों पर आरोहण करती उसकी आँखें, जल के दिगन्तों तक चली गई हैं। · · आगे-आगे जा रहे एक चरण-युगल की छापों का अनुसरण करती हुईं । एकाएक जैसे उस छोर के मोड़ पर वे अटक गई। मानो नदी स्वयम् थम गई । उसकी अन्तिम तरंग पर एक ज्वाला की पादुका छूट गई । और वह आभा-पुरुष, सामने के अथाह में छलांग मार गया।
'लो, मैं भी आयी, मान ! अब नहीं रुक सकती..।'
और चन्दना रेलिंग फाँदने को हुई, यमुना के प्रवाह में कूद जाने के लिये। कि तभी किसी ने पीछे से उसे दोनों बाँहों में बाँध कर अपनी छाती पर भींच लिया । .. . .. 'ओह, तुम, तुम . . 'तुम कैसे चालाक और निर्मम खिलाड़ी हो! पर्दे के पीछे से खेलते हो, और हाथ नहीं आते । बस, पीड़ित किये चले जाते हो। छीलते चले जाते हो । पर्त-पर्त बींधते चले जाते हो । रग-रग में धंसे चले आते हो । एक-एक रक्ताणु को फोड़ते चले जाते हो।
_ 'छोड़ दो मुझे । छोड़ दो, मैं नहीं रुकूँगी । मैं · · · मैं • • ‘नहीं पुकारूँगी तुम्हें, वर्द्धमान !'
___ • • • और अचानक दिव्य वाजिंत्रों की ध्वनियों से कौशाम्बी का आकाश भर उठा । मणिप्रभ देव-विमानों की उड्डीयमान पंक्तियाँ । मन्दार मालाएं बरसाती हुई देवांगनाएँ । जयकारों से गुंजायमान दिगन्तों का मण्डल ।
और कौशाम्बी के राजपथ पर से सहस्रों मानव-मेदिनी की हर्षाकुल जय-ध्वनियाँ सुनाई पड़ीं :
'सर्वज्ञ अर्हत् महावीर जयवन्त हों । त्रैलोक्येश्वर भगवान महावीर जयवन्त हों। विपूलाचल का समवसरण जयवन्त हो । चर-अचर, जड़-जंगम, लोकालोक सुनें, विपुलाचल के शिखर पर से सर्वज्ञ की दिव्य ध्वनि निरन्तर प्रवाहित है। . . .'
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