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युग-तीर्थ की स्थापना
कौशाम्बो के राजमहल की अटारी पर चन्दना अकेली खड़ी है । वह उन्मन और उदास है। भीतर वह नितान्त शून्य है। आरपार खाली और खुली है । भर जाने के लिये । पर कौन है वह, कहाँ है वह, जो उसे भर देगा ? वह परम भर्तार !
और चन्दना मन ही मन बोली : ... . 'उस दिन तुम मुझ बन्दिनी को मुक्त कर गये । सर्वस्व ले गये । और सर्वस्व दे गये । और फिर अपनी राह लौट गये । एक बार मुड़ कर भी नहीं देखा। निर्मम पोठ दे कर निश्चल पग चले गये । मेरो छाती को निःशंक गूंधते हुए निकल गये। कितना तरस गई ! एक बार बोल जाते तो ? कुछ कम पड़ जाते ? · . . ___ 'पर आज उस दिन के अबोले ही कितने भले लग रहे हो! तुम्हारे उस मौन में निरन्तर अवगाहन करती रही हूँ। केवल यही तो अब मेरा जीवन है। • • लेकिन तुम्हारा वह चेहरा सामने पाने को तरस जाती हूँ। वह सौन्दर्य, वह आभा, जिसको सीमा नहीं। · वह मुखड़ा, जिस पर सारे जगत का विषाद छाया देखा था। वे दर्दीली आंखें, जिनमें सारी सृष्टि का दरद काजल को तरह अँजा हुआ था । वह चितवन, जिससे अधिक अपना और कुछ नहीं लगता । और इस सब पर खिली थी वह मुस्कान : सरोवर से उद्भिन्न कमल । ___... 'नारी हूँ, तुम्हें सदेह और समग्र, समीप पाये बिना मुझे चैन नहीं। कहाँ हो तुम, कितनी दूर, किस निर्जन में ? ऋजुबालिका के तट पर तुम्हारी अखण्ड समाधि की ख़बरें सुनती रही हूँ। क्या वह कभी टूटेगी नहीं ? उससे तुम बाहर न आओगे? तो • तो मैं उसे तोड़ दूंगी, मान। तुम्हें बाहर आना
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