________________
वर्षायोग समाप्त होने पर नालंदा से विहार कर गया। चलते समय देखा, गोशालक का कोना सूना पड़ा है। उसकी झोली भी वहाँ नहीं है। कहीं भटकता होगा।
फिर कोल्लाग सन्निवेश में आ निकला हूँ । यहाँ के बहुल ब्राह्मण का भाव उज्ज्वल है। चौमासे के अन्तिम मास-क्षपण का पारण उसी के द्वार पर हुआ। उसके हाथ से जैसे चन्द्रमा ने भिक्षुक के पाणि-पात्र में पयस ढाल दिया।
__ भूखे-प्यासे गोशालक का निरीह कुम्हलाया मुख सामने आ गया। देख रहा हूँ : नालन्द की तन्तुवाय-शाला के श्रमणागार में लौट कर, जब उसने मझे वहाँ नहीं पाया, तो वह उद्विग्न हो गया। सब से पूछता फिरा : स्वामी कहाँ गये ? किसी ने कोई उत्तर नहीं दिया। सारा दिन उदास मुख लटकाये चारों ओर खोजता फिरा। मन ही मन कातर हो कर उसे रुलाई आ गई : 'हाय, मैं तो फिर वैसा ही एकाकी हो गया। वह विक्षिप्त-सा हो गया। उसने झोली राह पर फेंक दी । तत्काल मस्तक मुंडवा कर और वस्त्र त्याग कर, नग्न हो निकल पड़ा। कोल्लाग सन्निवेश में आ कर उसने सुना कि बहुल ब्राह्मण के यहाँ एक श्रमण ने आहार लिया, तो रत्न-सुवर्ण की वृष्टि से उसका घर भर गया। उसने सोचा : 'ऐसा प्रभाव तो मेरे गुरु का ही हो सकता है।' खोज-तलाश करता वह नदी तट के एकान्त में आ पहुंचा, जहां मैं कायोत्सर्ग में लीन था । चरणों में सर ढाल कर बोला :
'मैं भी नग्न निःसंग हो गया, प्रभु । अब इन श्रीचरणों से मुझे अलग न रक्खें । क्षण भर भी अब स्वामी के बिना मुझे चैन नहीं। पर तुम ठहरे वीतरागी, तुम से प्रीति कैसे सम्भव है? लेकिन विवश हूँ, बलात् मेरा मन तुम्हारी ओर खिंचता है। उपेक्षा करते हो, तब भी अपने ही लगते हो । क्योंकि विकसित कमल जैसी दृष्टि से तुम मेरी ओर देखते हो । ऐसी चितवन और कहाँ पाऊँगा !'
'आत्मन्, भव्य है तू !'
श्रमण के निस्पन्द ओठों से उसे सुनाई पड़ा। उसकी आँखों से टप-टप आंसू गिरने लगे और वह पागल हो कर नाचने लगा । अवधूत की तरह निरंजन है इस लड़के की चेतना। तन-मन के ऊपरी तलों में जाने कितने ही विरोधी खेल चलते रहते हैं। पर भीतर से एक दम ही उन्मन है यह । अकारण क्रीड़ा-कौतुक करता रहता है । कितनी विचित्र होती हैं, जीवों की परिणतियाँ ।
स्वर्णखल की ओर जा रहा हूँ। पीछे-पीछे गोशालक चुपचाप चल रहा है। मार्ग में कुछ ग्वाले खीर पका रहे हैं । गोशालक बोला :
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org