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'प्रभु, मैं क्षुधातुर हो गया हूँ। चलिये इन ग्वालों से पायसान्न का भोजन पायें।'
'यह खीर नहीं पकेगी !' जंगल बोल उठा।
गोशालक अपनी भूख को भूल कर उत्पात की मुद्रा में आ गया। जा कर ग्वालों से बोला :
'अरे गोपालो, सुनो, ये देवार्य त्रिकालज्ञ हैं। कहते हैं कि यह खीर नहीं पकेगी। पकते न पकते, तुम्हारी हंडिया फट जायेगी, और खीर माटी में मिल जायेगी।' ___ भयभीत और क्षुधार्त ग्वाले चौकन्ने हो गये । उन्होंने तुरत हँडिया को बाँस की खिपच्चियों से कस कर बाँध दिया। किन्तु चावल अधिक अनुपात में होने से फूल गये, और हंडिया सचमुच ही फट पड़ी । ग्वालों ने ठीकरों में अवशिष्ठ खीर खा कर संतोष किया। पर गोशालक के पल्ले कुछ नहीं पड़ा।
मन ही मन वह बुदबुदाया : 'हाय री नियति ! प्रभु सच ही कण-कण की जानते हैं। नियतिवाद परम सत्य है।' और अपने खोजे सत्य की प्रतीति पा कर ही वह मानों सन्तुष्ट हो गया। ___आगे विहार करते-करते हम ब्राह्मण ग्राम आ पहुँचे । गांव के दो पाड़े हैं : नन्द और उपनन्द नामक दो भाई क्रमशः उनके स्वामी हैं। नन्द का घर छोटा है, उसकी समृद्धि कम है। मैं उसी के द्वार पर भिक्षार्थ चला आया। बहुत प्रेम से उसने भिक्षुक को दही और कुरान का आहार दिया। उपनन्द का घर बड़ा देख कर गोशालक उसके यहाँ भिक्षार्थ जा पहुँचा । गृह-स्वामी की आज्ञा से एक दासी ने उसे बासी चावल भिक्षा में दिये। गोशालक ने रुष्ट हो कर उपनन्द को धिक्कारा । सुन कर उपनन्द ने दासी से क्रोधावेश में कहा :
'जो वह भिक्षान्न न ले, तो उसे उसके माथे पर ही डाल दे।' बासी चावलों से नहा कर गोशालक गरज उठा :
'श्रमण का ऐसा घोर अपमान ? यदि मेरे गुरु का तपतेज सच्चा हो, तो रे मदान्ध, तेरा धर जल कर भस्म हो जाये।'
तपतेज तो किसी का सगा नहीं । मेरा भी नहीं । · देखते-देखते उपनन्द का घर घासफूस के पुंज की तरह जलकर भस्म हो गया। मेरा किसी से क्या लेना-देना। जीव परस्पर अपना दीना-पावना चुका रहे हैं। प्राणियों के रागदेषों के इन दुश्चक्रों में से अनुभव-यात्रा किये बिना छुटकारा नहीं। जिसे पार करना है, उसे भेदना तो होगा ही। उसे जाने बिना निस्तार नहीं।
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