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________________ ६६ अगले दिन बड़ी भोर तन्तुवाय-शाला के एक कोने में जा कर ध्यानस्थ हो गया । कर्षों की खड़खड़ाहट में चेतना एकतान हो कर अनहद नाद से संयुक्त हो गई । एक अद्भुत सम्वाद की ध्यानानुभूति हुई। कर्म में अकर्म : और अकर्म में कर्म । सहसा ही सुनाई पड़ा : 'मगधनाथ श्रेणिक प्रणाम करता है, भगवन् ।' फिर एक कोमल कण्ठ स्वर सुनाई पड़ा : 'वैदेही चेलना प्रणाम करती है, भन्ते ।' समरस श्रमण की स्थिर नासाग्र दृष्टि में, राजमुकुटों के रत्न पिघल कर एक श्वेत धारा में बुलबुलों-से विसर्जित हो गये। 'मगध के साम्राजी श्रमणगार का आतिथ्य स्वीकारें, भगवन् ।' उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला । श्रमण ने दाँया हाथ उठा कर, कर्षों पर तेजी से घूम रहे, सहस्रों पंक्तिबद्ध हाथों की ओर उँगली उठा दी। • • देख श्रेणिक, पृथ्वी का आगामी साम्राज्य बुना जा रहा है। महारानी चेलना ने निवेदन किया : 'देवानुप्रिय, हमारी सेवा स्वीकारें। मगध के महालय को अपनी पदरज से पावन करें।' चुप रह कर, श्रमण फिर प्रतिमायोग में निश्चल हो गया। एक तीसरे पहर वनचर्या से लौट कर देखा : श्रमण-शाला के एक कोने में कोई थका-माँदा युवक आकर ठहर गया है। उसके तेजस्वी चेहरे पर भोलापन है। दिङ्गमूढ़-सा लगता है । निपट अकिंचन, पांशुकुलिक जान पड़ता है। उसके इकहरे गोरे सुन्दर शरीर पर, केवल जर्जर-सा अन्तर्वासक, और उपरना पड़ा है । घने धुंघराले अवहेलित बाल धूल में सने हैं। 'भन्ते आर्य, मैं मंखलि-पुत्र गोशालक प्रणाम करता हूँ।' मैंने निगाह उठा कर ऊपर से नीचे तक उसे हेरा । 'भिक्षक वंश में ही मेरा जन्म हुआ है, भन्ते । जन्मजात अनगार हूँ। प्रवास की एक गोशाला में अचानक मेरी माँ ने मुझे प्रसव किया था, सो गोशालक कहलाता हूँ । श्रमण चुप रहा। 'पिता मंखलि चितेरे हैं। भद्र लोगों के चित्रपट बना कर पेट पालते हैं। मेरी भी वही आजीविका है।' Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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