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अगले दिन बड़ी भोर तन्तुवाय-शाला के एक कोने में जा कर ध्यानस्थ हो गया । कर्षों की खड़खड़ाहट में चेतना एकतान हो कर अनहद नाद से संयुक्त हो गई । एक अद्भुत सम्वाद की ध्यानानुभूति हुई। कर्म में अकर्म : और अकर्म में कर्म । सहसा ही सुनाई पड़ा :
'मगधनाथ श्रेणिक प्रणाम करता है, भगवन् ।' फिर एक कोमल कण्ठ स्वर सुनाई पड़ा : 'वैदेही चेलना प्रणाम करती है, भन्ते ।'
समरस श्रमण की स्थिर नासाग्र दृष्टि में, राजमुकुटों के रत्न पिघल कर एक श्वेत धारा में बुलबुलों-से विसर्जित हो गये।
'मगध के साम्राजी श्रमणगार का आतिथ्य स्वीकारें, भगवन् ।'
उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला । श्रमण ने दाँया हाथ उठा कर, कर्षों पर तेजी से घूम रहे, सहस्रों पंक्तिबद्ध हाथों की ओर उँगली उठा दी।
• • देख श्रेणिक, पृथ्वी का आगामी साम्राज्य बुना जा रहा है। महारानी चेलना ने निवेदन किया :
'देवानुप्रिय, हमारी सेवा स्वीकारें। मगध के महालय को अपनी पदरज से पावन करें।'
चुप रह कर, श्रमण फिर प्रतिमायोग में निश्चल हो गया।
एक तीसरे पहर वनचर्या से लौट कर देखा : श्रमण-शाला के एक कोने में कोई थका-माँदा युवक आकर ठहर गया है। उसके तेजस्वी चेहरे पर भोलापन है। दिङ्गमूढ़-सा लगता है । निपट अकिंचन, पांशुकुलिक जान पड़ता है। उसके इकहरे गोरे सुन्दर शरीर पर, केवल जर्जर-सा अन्तर्वासक, और उपरना पड़ा है । घने धुंघराले अवहेलित बाल धूल में सने हैं।
'भन्ते आर्य, मैं मंखलि-पुत्र गोशालक प्रणाम करता हूँ।' मैंने निगाह उठा कर ऊपर से नीचे तक उसे हेरा ।
'भिक्षक वंश में ही मेरा जन्म हुआ है, भन्ते । जन्मजात अनगार हूँ। प्रवास की एक गोशाला में अचानक मेरी माँ ने मुझे प्रसव किया था, सो गोशालक कहलाता हूँ ।
श्रमण चुप रहा।
'पिता मंखलि चितेरे हैं। भद्र लोगों के चित्रपट बना कर पेट पालते हैं। मेरी भी वही आजीविका है।'
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