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________________ अवसर्पिणी का विदूषक : मंखलि गोशालक मगध के आँगन में आ खड़ा हुआ हूँ। पंच शैलों ने गर्दन उठा कर कौतूल से मुझे देखा । उनसे परे, विपुलाचल उन्नत मस्तक खड़ा है : वीतराग । उसके पादप्रान्त में बिम्बिसार श्रेणिक का साम्राज्य-स्वप्न करवटें बदल रहा है । दूर पर राजगृही के अभ्रंकश गुम्बदों और भवनों के गर्वीले माथे झुक गये हैं। उनसे पीठ फेर कर गाँवों की ओर चल पड़ा हूँ। राह में नालन्द-पाड़ा गांव के बाहर, किसी तन्तुवाय-शाला का विशाल छप्पर दिखाई पड़ा। भीतर प्रवेश कर गया। सैकड़ों जुलाहों के पंक्तिबद्ध हाथ बुनाई के साँचों पर तेजी से चल रहे हैं । कम्मकर : बुनकर । · · ·याद आ गई बरसों पुरानी उस दिन की बात । पिप्पली-कानन के मेले से चुपचाप निकल कर, इन कृषकों और कम्मकरों की बस्तियों में चला गया था। वहाँ से फिर मेरा हृदय लौट कर कभी नन्द्यावर्त के राजभवन में नहीं आया। केवल यही श्रमिक तो वे लोग हैं, जो सच्ची और जीवित रोटी खाते हैं । गर्म खून से सीधे उठी ताज़ा रोटी। उसके बाद महलों में बसते अभिजातों का भोजन बासा और मत लगा था। महासत्ता से चुराया हुआ मोहन -भोग। - फिर तो भोजन की ओर से मेरा मन ही विरक्त हो गया !... अविराम श्रम करते, ये जीवन के शिल्पी श्रमिक । धर्म जिनमें सहज ही कर्म हो गया है। ये जन्मजात अपरिग्रही हैं । अपरिग्रह का व्रत लेने का दम्भ इन्हें नहीं करना पड़ता। क्योंकि परिग्रह ही इन्हें अनजाना है। इनके बाद केवल अनगार श्रमण ही सच्चा अपरिग्रही होता है। प्रकृत धर्म की रेखा सीधे श्रमिक से श्रमण की ओर गई है। तन्तुवाय-शाला के जेठुक ने आकर श्रमण का विनयाचार किया। फिर सामने की ओर खड़ी श्रमण-वसतिका की ओर इंगित कर वह मुझे उस ओर ले गया। दालान के एक कोने में बिछे तख्त का मयूर-पीछी से शोधन कर, मैं उस पर आसीन हो गया। जेट्टक मेरी आवश्यकताएँ पूछता रहा । सो तो कुछ थी ही नहीं। मैं चुप रहा। जेठुक माथा नवाँ कर चला गया । . . Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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