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ज्ञान के छोर पर मुझे खड़ा मिला है यह निर्वस्त्र भिक्षुक । किम पर यहाँ भरोसा किया जाये, किसका यहाँ सहारा लिया जाये । मारे अवलम्बन झूटे पड़ गये । झूठे हैं सारे शास्त्र, सारे ज्ञान-विज्ञान, सारी लक्षण-विद्याएँ । कितनी सारी मृगरिचिकाएँ । कहाँ है वह चक्रवर्ती, जिसकी महिमा के गान से लक्षण-शास्त्र भरे पड़े हैं . . · । या तो उसे पा लेना होगा, या मुझे अपने इस कंगाल जीवन का अन्त कर देना होगा।' __अन्तरिक्ष में से ध्वनित हुआ: 'बुज्झह - ‘बुज्झह· · बुज्झह । यही है. . . यही है . • यही है वह चक्रवर्ती, पुष्पदन्त ! पर केवल भरत-क्षेत्र की षट् खण्ड पृथ्वी का नहीं । यह लोकालोक की समस्त सत्ताओं का एकराट् म्वामी है। यह चक्रवतियों का चक्रवर्ती है। · · ·आगामी युगतीर्थ का प्रवर्तक, तीर्थंकर महावीर । तेरे शास्त्रों में भी जो नहीं लिखे, ऐसे बत्तीस हजार लक्षणों से दीपित है, इस पुरुषोत्तम की काया । . .
__'निपट अकिंचन एक मात्र यही, निखिल सम्पदाओं का अखण्ड भोक्ता और प्रभु है ! • • “सच ही अनुभव किया तूने, तेरे सारे शास्त्र, विज्ञान, सम्पदाएँ, सहारे, जहाँ समाप्त हो गये, वहीं इसे देखा और पाया जा सकता है। जान, जान, जान पुष्पदंत, यही है वह, जिसे तू चिरदिन से खोज रहा है। यही है वह, जिसे सारी विद्याएँ, आदिकाल से थाहने में लगी हैं। - बुज्झह - ‘बुज्झह· · बुज्झह पुष्पदन्त ।'
अपने भ्रमध्य में स्थित तृतीय नेत्र तले, मेरे ओंठों पर अस्फुट म्मित खिल आयी। . . .
पुष्पदन्त को आंखों से आँसू झर रहे हैं। और अपने भीने कपाल और कपोल को मेर एक पगतल से जुड़ाये वह गहरी साँसें ले रहा है । शायद इस आकांक्षा से कि उसका ललाट इस निष्किचन चक्रवर्ती के चरण-चिह्नों से सदा को लांछित हो जाये · ।
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