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८.9
चुप ..
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'देवार्य जैसा सुन्दर पुरुष तो आज तक मैंने देखा नहीं । आज्ञा हो तो आपका चित्र आँकू, भन्ते · · !'
श्रमण मौन, दूर की पहाड़ी ताकता रहा। .
'कृपा करें भन्ते, ऐसे ही किसी निग्रंथ गुरु की खोज में जाने कब से भटक रहा हूँ।'
'चित्रांकन में अब मन नहीं लगता । भद्र , लोगों के भोंथरे चेहरे कब तक आँक् । सो निकम्मा समझ कर पिता ने निकाल दिया है। दर-दर मारा-मारा फिर रहा हूँ। कहाँ जाना है, पता नहीं। किस खोज मेंहूँ, नहीं मालूम । भिक्षा भी नहीं मिलती। कई दिन उपासे निकल जाते हैं। लोग मुझे कंगाल भिखारी. समझ कर ताड़ देते हैं । मैं कहता हूँ, मैं श्रमण हूँ। वे उपहास करते हैं। बच्चों को मेरे पीछे छू लगा देते हैं। उद्धत बच्चे मुझ पर धूल फेंकते हैं, मुझे मार-पीट कर भगा देते हैं । ये लोग मुझे समझते ही नहीं। कहाँ जाऊँ, क्या करूँ, भन्ते, राह दिखाएँ।' ___ मैं अपलक मौन उसे ताकता रहा।
'भन्ते, क्षमा करें, इस संसार में सब ओर मुझे मायाचार ही दीखा । सब झूठ। कोई किसी का नहीं। सब स्वारथ के सगे । राजा देखें, श्रेष्ठि देखे, श्रावक देखे, श्रमण भी बहुत देखे। सब पाखंडी। हैं कुछ और, दिखाते कुछ और हैं। पर मैं तो निरा मूर्ख हूँ, भन्ते। चतुराई आती नहीं । जो मन में आता है, वही बक देता हूँ। सच्ची बात कहने से डरता नहीं। इसी से सब मुझ से चिढ़ते हैं। धक्का देकर हकाल बाहर करते हैं। उनकी पोल खोल देता हूँ न। क्या करूँ, स्वभाव से लाचार हूँ, भन्ते ।'
'आप महानुभाव हैं, देवार्य । मेरी बकझक सब सुन रहे हैं। इतने धीरज से किसी ने मुझे नहीं सुना । बहुत अनुगृहीत हुआ आपको पा कर ।...'
अकारण वात्सल्य मेरी आँखों में झलक आया। मैं उस मलिनवेशी दीन युवा के प्रति दयार्द्र हो आया। निरा सरल, चिर अनाथ बालक है यह।
_ 'भगवन्, अपने ऊपर मुझे बहुत खीझ और क्रोध आता है। आत्मग्लानि से मेरा मन सदा क्षुब्ध और कातर रहता है। कितना टूटा-फूटा, घृणित, बेकार हूँ मैं। लगता है कि बहुत अधूरा और अटपटा हूँ। यहां सब अधूरे और अटपटे हैं। पर कपट कौशल से अपने छिद्र छुपाते हैं। मुझे कपट-कूट आता नहीं। करना चाहता हूँ, पर कर नहीं पाता। सफल नहीं होता । सो उलटी मार पड़ जाती है।'
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