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________________ भव्य आर्यावर्त का ज्ञानसूर्य इस समय अस्तप्राय है । इस अज्ञानान्धकार में परम्परागत धर्म-ज्योति के सिंहासन पर छद्म देव, गुरु और शास्त्र ने अधिकार जमा लिया है । सत्ता और सम्पदा के स्वामियों ने अपने वैभव से इन तेजोहीन मिथ्या गुरुओं को खरीद लिया है । शाश्वत धर्म की ज्योति मुट्ठी भर उच्च वर्गों के ठेके की वस्तु हो गई है । राजा, पुरोहित और वाणिक मिल कर धर्म की ओट अपने स्वार्थ पोषण और शोषण का व्यापार अनर्गल भाव से चला रहे हैं । व्यभिचारी और अनाचारी साधु के वेश में गुरु आसन पर बैठ कर त्याग और तप का उपदेश प्रजा को पिला रहे हैं । वे सम्पत्तिशालियों के क्रीत दास हैं, और ग़रीब प्रजा की उन तक पहुँच नहीं । वे ग़रीब को सदा ग़रीब और अज्ञानी ही रखना चाहते हैं । पुण्य-पाप के मनगढन्त मिथ्या शास्त्र रचकर, वे अपने श्रीमन्त यजमानों के पुण्य का रात - दिन जयगान कर रहे हैं। श्रमिक, शूद्र और चण्डाल के लिये वेदवाणी सुनने का निषेध कर दिया गया है । सो बहु संख्यक निम्न वर्गीय प्रजा अपढ़ और अज्ञानी है । वह मूढ़ता और अन्ध विश्वासों के अन्धकार में भटक रही है । अपने ही भयों और अज्ञानों को वह देवता बना कर पूज रही है । विषम वासनाओं से पीड़ित भूत-प्रेतों, व्यन्तरों और यक्षों को, वह उजाड़ों, वन-खण्डों, खण्डहरों, वृक्षों और जलाशयों में पूजती फिर रही है । अरे कौन समझेगा इन अज्ञानी भवजनों की वेदना ? कौन इन अँधेरे में भटकते संत्रस्त संसारियों को अज्ञान और अन्ध विश्वासों के तिमिरपाश से मुक्त करेगा ? कौन इस तमसा में ज्ञान का दीपक जलायेगा ? ४२ • . देखा कि एक ग्वाला अपनी गायों को जंगल में चरती छोड़, मेरी ओर चला आ रहा है । 'नमोस्तु, भन्ते श्रमण 'धर्मलाभ करो, गोपाल ।' !' ' तन-मन की, जन - वन की सब कथा जानते हो, स्वामी । कुछ मेरे जी की बताओ ।' 'तेने सोवीर और कंगकूर का भोजन किया है, आयुष्यमान । तेरा गोधन कोई चुरा ले गया है । अभी रास्ते में साँप पर तेरा पैर पड़ गया था । और पिछली रात सपने में तू बहुत रोया, वत्स... Jain Educationa International 'अन्तर्ज्ञानी हो, नाथ । आपका दर्शन पा कर, दीन जन धन्य हो गया । मेरे सब कष्ट हरो, स्वामी, मेरे दुख दूर करो ।' 'अपने को जान, वत्स । तेरे सब दुःख आप ही दूर हो जायेंगे ।' For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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