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अप्प दीपो भव
मैं तो कुछ बोलता नहीं । केवल देखता रहता हूँ, जो भी सामने आये । जहाँ कहीं भी अँधेरा दीखता है, भीतर की रोशनी आपोआप प्रकट हो कर उसे उजाल देती है । वातावरण में व्याप्त शब्द के परमाणु तब आप ही स्फूर्त हो कर उस प्रकाश को ध्वनित कर देते हैं । परावाक् वाक्मान हो उठते हैं । सो जब भी कहीं कोई प्रश्न उठाता है, तो आपोआप ही उत्तर अन्तरिक्ष में से सुनाई पड़ जाता है । मैं भी उसे सुन कर अधिक सम्बुद्ध होता हूँ : समाधान पाता हूँ । हर प्रश्न के समक्ष मैं तो चुप ही रहता है : पर श्रोता को अचूक उत्तर सुनाई पड़ता है ।
सब जगह जाना है । सबके पास जाना है । सो कहीं या किसी के पास जाने का चुनाव क्यों कर सम्भव है । जहाँ भी रिक्त है, कष्ट है, वहीं की पुकार मेरे पैरों को खींच ले जाती है । अपने से तो कहीं जाता नहीं : मानों ले जाया जाता हूँ । जहाँ से भी आवाहन सुनाई पड़े, प्रस्तुत हो जाता हूँ।
देख रहा हूँ, कि फिर मोराक सन्निवेश में आ निकला हूँ । एक वटवृक्ष तले के चबूतरे पर सिद्धासन से बैठा हूँ । उसकी शाखाओं में से फिर जड़ें फूट आई हैं । धरती की ओर बढ़ती हुई, वे फिर उसी में समा जाना चाहती हैं । यह वृक्ष जहाँ से आया है. वहीं लौट जाना चाहता " है । यह तो कोई आत्मज्ञानी लगता है । पर इसके भाव पर किसी की निगाह नहीं । सब की निगाहें अपने भयों और इच्छाओं पर लगी हैं।
चबूतरे पर. तने के सहारे कई पूजित पत्थर पड़े हैं । हाय रे भवारण्य में भटकते मनुष्य का अज्ञान ! जितने पत्थर हैं, उतने ही देव, उसने बना लिये हैं । वह इनमें अपने दुःखों से त्राण खोजता है। हर वृक्ष तले एक रुण्ड-मुण्ड पत्थर देव बना बैठा है । हर बस्ती की सीमा पर, कोई साधु आश्रम बना कर, गुरु के आसन पर बिराजमान हो गया है । हर वृक्ष का पत्ता शास्त्र हो गया है । अज्ञानी जन, अपने संसारी परितापों से उबरने के लिये इनके चरणों में शरणागत होते हैं । जो स्वयम् ही भवतापों से त्रस्त हैं, वे औरों के तारनहार बन कर बैठे हैं । मूढ़ जनता को प्रवंचित कर, वे अपनी शिष्नोदर की भूख प्यासों को तृप्त कर रहे हैं।
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