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लोकजन मेरी अनियत राह पर बहुत दूर तक मुझे पहुँचाने आये । एकाग्र, एक दिशोन्मुख चला जा रहा हूँ । पैरों में कितने ही मस्तक, सुगंधित केश-कलाप, और आँचल विछ कर सिमट जाते हैं ।... लौटते जनों की प्रेमाकुल सिसकियाँ सुनाई पड़ जाती हैं ।
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आश्विन की नई सुहानी धूप में हरियाली वन्य राह पर, एकाकी हंस की तरह अपने को गतिमान देख रहा हूँ। तभी अचानक पीछे से किसी ने मेरा कन्धा छू दिया । फिर एक विशाल तमसाकार आकृति मेरे पैरों में आ गिरी । सुनाई पड़ा :
'भगवन्, त्रिभुवन के तारनहार हो । भव-भव की क्लिप्ट कषाय ग्रंथियों से तुमने मुझ पापात्मा को मुक्त कर दिया । हे अकारण भव्यवत्सल प्रभु, जो दारुण कष्ट तुमको मैंने दिये. उनके लिए मुझे क्षमा कर जाओ ! '
उत्तर में सुनाई पड़ा :
'शूलपाणि, सावधान, तुम पापात्मा कैसे ? आत्मा और पाप साथ नहीं जाते । पाप से अस्पृश्य है आत्मा । क्षमा अन्य कौन कर सकता है ? स्वयम् ही अपने प्रभु हो जाओ। आप ही अपने को क्षमा कर सकते हो । आप ही अपने को प्यार कर सकते हो । बुज्झह 'बुज्झह, शूल
पाणि ! . तत्वमऽसि ! '
देखते-देखते वह कज्जलकाय यक्ष श्वेताभ हो गया । उसके ललाट में
सम्यक्त्व चक्षु खुल आया ।
अविज्ञात दिशा में, अपने ही समय पथ पर चलाचल रहा हूँ ।
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