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कूटस्थ मन्दराचल की तरह ऊर्ध्व में उन्नीत है । और यगान्त के समुद्र जाने कितनी ही वन्याएँ बन कर आते हैं, और मेरी शिराओं में से कोमल शांत नदियाँ बन कर बहते दीखते हैं। · · दुर्दान्त घोष करती हुई शम्पाएँ, जब क्षितिजों पर कड़कड़ा कर टूटती हैं, तो मेरे मूलाधार दहल उठते हैं और उनमें से एक महावासना की ज्वाला-सी लहकती है । जी चाहता है कि उल्काओं के ये वज मुझ पर टूटें, और इनके सत्यनाश को मैं सहूँ, जाने, जी जाऊँ । और मेरी इस अस्खलित वासना के उत्तर में, वे विद्युल्लताएँ मेरे अंगों पर अतीव सुन्दरी, सुकुमारी अंगनाएँ बन कर टूटती हैं । उनकी विस्फोटक ध्वनियों में, मेरे सर्वांग को आलिंगन में कसती बाहुओं के कंकणरव रणकार उठते हैं ।
- • • कुछ ही दिनों में देखा कि इस निःसीम चराचर प्रकृति के साथ एकीभूत, तदाकार हो गया हूँ । मानों कि इसी की अनादि पुरातन साँवली काया में से एक कास्य पुरुष उत्कीर्ण हो आया है । आँधी-वर्षा के मूलोच्छेदक थपेड़ों के बीच, वह आकाश को वेधता हुआ उत्तान और उन्मुक्त खड़ा है । उसकी आजानु प्रलंबमान भुजाओं, और रानों पर लताएँ लिपट गई हैं । मणियों से दमकते भुजंगम नाग उसकी जाँघों और छाती को परिरम्भण में कसे हैं । फिर उसके हृदय-देश पर चुम्बन करते हुए वे गहरी सुगंध-मूर्छा में शिथिल हो गये हैं । अंगांगों पर कोमल काई आश्वस्त भाव से उग आई है । उसके पगतलों और टांगों में कई सरिसृपों ने अपनी बांबियां बना ली हैं । उसके चरण युगल के बीच न्योले साँपों को अपनी छाती से चाँपे स्नेह-सुख से विभोर लेटे हैं । वृष्टिधाराओं से सनसनाती भयावह प्राणहारी रात्रियों में अनेक विषाक्त गोह, छिपकलियाँ आदि जन्तु उसकी अविचल लताच्छादित जाँघों और बाहु-मूलों के ऊष्म गह्वरों में अभय भाव से शरणागत हैं । चाहे जब वे उसके शरीर के किसी भी भाग में निश्चिन्त भाव से रेंगते दिखाई पड़ते हैं। . . . __ तापस वर्द्धमान ने फिर एक बार महावीर को अकुतोभय मुद्रा में सामने खड़ा देखा । · · 'ओह, आत्मन्, तुम्ही तो मेरे एकमेव स्वरूप हो । अनावरणीय, अनाघात्य ।
देश काल का बोध विस्मृत हो गया है । और मेरे रोंये-रोयें में अनवरत जाने किस माँ के वक्षोंजों का दूध अभिसिंचित होता रहता हैं । . . त्रिशला, तुम उदास क्यों होती हो ? देखो न, तुम्हारी छाती कितनी विस्मृत हो गई है ! और उसमें तुम्हारा बेटा जैसे सदा को अमर्त्य हो गया है ।
· · वर्षायोग की समाप्ति पर, एक दिन देखा कि वृषभ-मन्दिर के सोपान उतर कर मैं प्रयाण कर रहा हूँ । परिसर के सनिवेश से हजारों
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