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________________ ३८ अन्तिम रूप से अभय और सुरक्षा की अनुपम शांति में मग्न हो कर जन प्रवाह फिर आनन्दोत्सव मनाता हुआ ग्राम की ओर लौट चला। उसी दिन के तीसरे पहर आकाश में प्रकाण्ड नक्काड़ों का तुमुल घोष होने लगा। पेघराज कालागुरु के पहाड़ जैसे दिग्गज पर चढ़ कर आये। उनकी घनघोर गर्जना से दिगन्त दहलने लगे। आकाश को तड़काती बिजलियाँ, अज्ञात पर्वत-शिखरों और खन्दकों में टूटने लगीं। मूसलाधार वर्षा आरम्भ हो गयी। बीच-बीच में अल्प विराम होता। और फिर हुमक-हुमक कर बादल वेलाएँ नित नये वेग से घुमड़ने लगतीं । लोगों को कहते सुना, इस बार का चौमासा अवढर दानी हो कर बरस रहा है। . ___मैं रात और दिन इसी सप्तछद के तले अविरल भाव से ध्यानस्थ रहने लगा हूँ। ऊँची-ऊँची हरियाली और कीच-कादव के गहरों से चारों ओर की राह रुंध गई है। भीतर ऐसी रसवष्टि होती रहती है, कि शरीर में गमनागमन की कोई चेष्टा ही नहीं रही है। ग्रामजन नित्य भोजन-बेला में मंगल-कलश साजे, भिक्षुक का द्वारापेक्षण करते थक गये। श्रमण अविराम वृष्टिधाराओं में नहाता सप्तच्छद वृक्ष तले शिलीभूत बैठा है। हिलने का नाम नहीं लेता। बढ़ती वनस्पतियों में उसकी देह ढंकी जा रही है। लोकजनों ने सोचा कि हरियाली का तन रौंद कर श्रमण बाहर चर्या नहीं करेगा। सो उन्होंने कुछ शिलाखंड रख कर, मेरे निकलने की राह बनायी। और उसी राह स्वयं भी आ कर अनेक विनतियाँ करने लगे : कि विषाक्त जीवजन्तु से भरे इन वनस्पति-जालों से बाहर आऊँ। वर्षा-पानी के थपेड़ों से बचूं और मन्दिर की छाँव स्वीकारूँ । उनके द्वारा आयोजित प्रासुक आहार ग्रहण करूं। • यह नित्य-क्रम सामायिक के कालाबाधित सुख को भंग करने लगा। · · ·सो एक दिन किसी निर्जन बेला में, वहाँ से उठ कर चल पड़ा। एक पगडण्डी मुझे लिवा ले चली । जहाँ पहुँच कर वह शेष हुई, वहाँ पाया कि एक वीहड़ अरण्य प्रदेश में आ गया हूँ। किसी पहाड़ी की ऊर्ध्वमुख चट्टान पर आसीन हो गया हूँ। चारों ओर दुर्गम अरण्यानियों और संकुल वनस्पतिलोक से घिर गया हूँ। और विराट् वर्षाकुल प्रकृति के बीच मानों उसका हार्द-पुरुष बन कर अवस्थित हूँ । प्रचण्ड गड़गड़ाहट के साथ घटाटोप मेघों के दल मुझ पर चढ़ आते हैं । और कल्पान्तकाल की बहिया बन कर मुझ पर फट पड़ते हैं । चाहता हूँ, इस आप्लावन में बह जाऊँ, डूब जाऊँ, निःशेष हो जाऊँ । निर्वापित हो निर्वाण पा जाऊँ । पर क्या है यह मेरे भीतर, जो एक ध्रुव, Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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