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________________ इसी से अस्तित्व की नग्न वास्तविक त्रासदी उनकी चेतना में पूरी तरह घटित और साक्षात्कृत नहीं हो पाती थी। अब अपने आत्मसंघर्ष की पीड़ा में से, और अपने अन्तिम प्रश्नों से जूझते हुए, वे सीधे अस्तित्व की त्रासदी का मुक़ाबिला करते हैं। अपने मानवीय सम्वेदन के स्तर पर वे उससे जुड़ते हैं, और उसका साक्षात्कार करते हैं। उनके इस अस्तित्व -चिन्तन में जैनों की अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व आदि बारह अनुप्रेक्षाओं का आपोआप ही समावेश हो जाता है। यहीं से महावीर की वह भीतरी अन्तरिक्ष-यात्रा आरम्भ हो जाती है, जिसमें आगे जाकर वे उत्तरोत्तर संघर्ष, बाधा, बन्धन की अनेक मूलभूत भूमिकाएँ पार करते हुए, उत्कृष्ट शुक्लध्यान तक ले जानेवाली कई उच्च से उच्चतर श्रेणियों पर आरोहण करते चले जाते हैं। यहाँ रचनाकार के सामने समस्या यह थी, कि ध्यान जैसे अमूर्त विषय का, कला में मूर्तन कैसे किया जाये ? पर्याप्त मंथन के बाद, जैसे मुझे प्रत्यक्ष विजन हुआ, कि भीतर के भूगोल और खगोल में अन्तर्गामी यात्रा के रूप में ही, सृजन के तहत अमूर्त ध्यान-प्रक्रिया को मूर्त रूप दिया जा सकता है। इस यात्रा की राह में पड़ने वाले आन्तरिक प्रदेशों और भूमिकाओं को बिम्ब प्रदान करना इसके लिये अनिवार्य हुआ। चूंकि तथ्यात्मक कथा यहाँ कोई सम्भव ही नहीं थी, इसी कारण काव्य, कल्पना, फन्तासी, प्रतीक और रूपकों द्वारा ही इस आन्तर चर्या को रचा गया है। ___ अपनी अन्तर-यात्रा में समस्त लोक का साक्षात्कार करने के उपरान्त, महावीर कर्म-चक्र की तात्विक लीला भूमि में उतरते हैं। वहाँ कर्म-बन्धन की प्रक्रिया को अनेक रंगों, आकारों, बिबो द्वारा उमारा गया है। तमस से प्रकाश तक की चेतना की भाव-स्थितियों को रचने के लिये, एक काव्यात्मक रंग-लीला द्वारा जैनों की षट् लेश्याओं का उपयोग कर लिया गया है । इसी प्रकार आगे भारतीय योग साधना के विभिन्न मार्गों में मिलने वाले अनेक प्रतीकों, साक्ष्यों, बिम्बात्मक भूमिकाओं का समन्वित ढंग से उपयोग करते हुए, महावीर की इस अन्तर-यात्रा को रचना-स्तर पर अधिकतम ऐंद्रिक अनुभवगम्य, भावगम्य, बोधगम्य बनाने की चेष्टा अपने आप सृजन के दौरान हुई है। उदाहरणार्थ काम, गरुड़ और शिव के स्वरूपों और लोकों में से महावीर गुज़रते हैं, और उनके भीतर भी अन्ततः अपने आत्म-स्वरूप का ही दर्शन करते हैं। गरुड़ के प्रतीक के माध्यम से वे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु के मण्डलों में से अभिसरण करते हुए, उनसे अतिक्रान्त हो कर आकाश में अपने पूर्ण विस्तार की सम्भावना अनुभव करते हैं। फिर जैनों के यहां निरूपित आत्मा के चौदह गुण-स्थानों (आत्मविकास की अनुक्रमिक भूमिकाओं) के भीतर संक्रमण, और शुक्ल-ध्यान की उच्चतर श्रेणियों पर क्रमशः आरोहण को मैंने विभिन्न धातु और खनिजों की पर्वत Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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