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________________ प्रश्न उठाते हैं। वे महावीर से अपने मनुष्य होने के प्रयोजन की परिभाषा मांगते हैं। इसके बाद, एक अध्याय में स्वयम् महावीर उक्त तीनों पात्रों की सारी उलझनों का समाधान करते हुए, स्वगत कथन में उन्हें सम्बोधित करते हैं। यहां अपनी उच्च ज्ञानात्मक स्थिति में रह कर भी, वे त्रिशला, चेलना, श्रेणिक और उनके माध्यम से मानों मनुष्य मात्र के प्रति समर्पित होते हैं। प्राणि मात्र के साथ वे चरम आत्मीयता में चिर काल आबद्ध होने को छटपटाते दीखते हैं। यहाँ वे अब तक प्राप्त अपनी समस्त ज्ञानात्मक उपलब्धियों को भी कमतर अनुभव करते हैं । वे अत्यन्त विनम्र जिज्ञासु और मुमुक्षु की तरह उस पूर्णज्ञान को पाने के लिये जूझते हैं, जिसे पाये बिना त्रिशला, चेलना, श्रेणिक और समस्त जगत के प्राणियों के साथ परिपूर्ण, अविच्छेद्य आत्मीयता में आबद्ध नहीं हुआ जा सकता। यह कैवल्य के तीर पर ध्यानस्थ, परम पुरुष की महावेदना की घड़ी है। यहाँ उनमें प्रचण्ड आत्म-संघर्ष और आत्म-मंथन घटित होता है। यहाँ वे मानव मात्र और प्राणि मात्र के साथ तदाकारिता, और पूर्ण सम्वाद तथा पूर्ण प्रेषणीयता उपलब्ध करने के लिये उत्कट आत्म-पीड़ा के साथ कशमकश करते हैं। वैसी किसी सम्भावना तक पहुंचने के लिये, अपनी ज्ञानात्मक सम्वेदना द्वारा, उस प्रकार के सम्वाद-सम्प्रेषण की सम्भाव्य नयी राहों का अन्वेषण करते हैं। कहें कि इस तरह के सम्वाद-सम्प्रेषण की एक नयी जमीन तोड़ते हैं। इस प्रकार इन अध्यायों में मानव और अतिमानव महावीर के बीच एक स्वाभाविक मनोवैज्ञानिक सामंजस्य और सामरस्य उपलब्ध हो सका है। बारह वर्ष व्यापी कठोर तप से गुजरने के बाद भी, कर्ण-वेध के उपसर्ग में महावीर पहली बार अपने को अन्तिम रूप से अकेला महसूस करते हैं। उसके बाद त्रिशला, चेलना और श्रेणिक के साथ मानसिक उलझाव के दौरान उनका वह अकेलापन उत्तरोत्तर बढ़ता ही चला जाता है। उक्त तीन पात्रों के साथ के अपने भीतरी 'डायलॉग' में वे एक तीव्र पुकार अनुभव करते हैं, कि क्या अपने इन आत्मीयों के साथ, और इनके माध्यम से समस्त चराचर सृष्टि के साथ वे एकात्म और तदाकार नहीं हो सकते ? क्या वे तमाम आत्माओं के भीतर प्रवेश कर, उनमें सम्वेदित और संस्पर्शित नहीं हो सकते ? क्या सबके साथ वे एक नित्य सम्भोग, सम्वाद और सम्प्रेषण में निरन्तर नहीं रह सकते ? क्या इस अन्तिम अकेलेपन से उबरने का यही एक मात्र उपाय नहीं है ? और इस प्रश्न के साथ ही वे सीधे चिरन्तन् मानवीय त्रासदी के आमनेसामने खड़े हो जाते हैं। अब तक वे तत्त्व से अस्तित्व का मूल्यांकन करते रहे, Jain Educationa international For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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