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________________ श्रेणियों के अतिक्रमण के रूप में बिम्बायित किया है। इस सिलसिले में रसेश्वर शैव-दर्शन के, पार्वती-रज अभ्रक, और शिव-वीर्य पारद वाले प्रतीकों का भी अनायास समावेश हो गया है। अभ्रक और पारद के सम्पूर्ण रजवीर्य संयोग द्वारा ही चंचल पारद निश्चल आत्मा की तरह स्थिर और घनीभूत हो सकता है। और इसी घनीभूत पारद द्वारा आत्मा अपने भीतर निहित शुद्ध जातरूप सुवर्ण में रूपान्तरित हो सकती है। इस भूमिका में नरनारी का क्षणिक मैथुनानन्द ही, पूर्ण योग की साधना द्वारा, आत्म-स्वरूप शिव-शिवानी के शाश्वत मिलनानन्द में परिणत हो जाता है। इस प्रकार मानुषिक स्तर के मैथुन को भी आत्मिक मैथुन की मूल भूमिका में यथा स्थान औचित्य, समर्थन और सार्थकता प्राप्त हो जाती है। इस तरह शुद्धात्मा की भूमिका, सर्व समावेशी और समग्र जीवन-आश्लेषी रूप में, रचना स्तर पर उपलब्ध हो जाती है। ___ इसके बाद केवलज्ञान के आकस्मिक प्राकट्य की प्रक्रिया और घटना, नाटकीय स्थितियों से गुजर कर एक अनायासिक विस्फोट और आलोकन में अपने चरम उत्कर्ष पर पहुंचती है। इसके उपरान्त सहसा ही महावीर समाधि भंग कर निखिल पर आंखें खोल देते हैं। केवलज्ञान के शिखर पर आरूढ़ अपनी आत्म-स्थिति का अवलोकन करते हैं, साथ ही बाहर के लोक में प्रकाशित अपने व्यक्तित्व की महिमा का भी तद्गत रूप से साक्षात्कार करते हैं। तब त्रिलोक और त्रिकाल के नित्य ज्ञानी, सर्वज्ञ महावीर अपने उस ज्ञानानुभव को व्यक्त करते हैं, ताकि उस तरह वे अपनी उपलब्धि को लोक-हृदय तक पहुंचा सकें, उसकी एक सचोट प्रतीति हर मुक्तिकामी आत्मा को करा सकें। यहां केवलज्ञान को भी महावीर अधिकतम मनोवैज्ञानिक अनूभूति के स्तर पर उतार कर, मानों उसे लोक-भोग्य बनाने को अकारण और निष्काम भाव से ही उत्प्रेरित होते हैं। ___ बेशक अकथ्य है वह अनुभूति, वह चेतना-स्थिति। फिर भी रचना में उसे अनिर्वच कह कर छोड़ देने से काम नहीं चलेगा। यदि कोई केवलज्ञान कभी कहीं सम्भव है, और वह यदि किसी कथा का विषय है, तो उसे भाव-सम्वेदन के स्तर पर मूर्त और सम्प्रेषणीय बनाना होगा। उस परम ज्ञान-स्थिति को एक इन्द्रियगम्य मनस्थिति के संवेदना-स्तर पर विश्वसनीय रूप से रूपायित करना होगा। उस निश्चल केन्द्र (स्टिल सेंटर) की अनुभूति को महज़ अनिर्वच कह कर, उस पर कला का मौन पर्दा डाल देने से रचना केवल एक रूढ़ आध्यात्मिक परिकल्पना पर अटक जाती है। वैसी चीज़ परम्परा में पहले ही से प्रतिष्ठित है। उसमें नया क्या हुआ ? और आधुनिक मनुष्य Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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