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________________ स्वरूप शुद्ध पारदर्शी ज्ञान है। ज्ञेय के अभाव में ज्ञान की क्या सार्थकता, क्या पहचान ? ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय के अविनाभावी सम्बन्ध में ही सच्ची आत्मस्थिति उपलब्ध हो सकती है । गहराई से सोचने पर समझ में आता है, कि यह एक मनोवैज्ञानिक सचाई है । बगैर किसी इरादे के ही, रचना के स्तर पर जब मैंने महावीर के कायोत्सर्ग को साक्षात् किया, तो वह स्वतःस्फूर्त रचना की राह इसी रूप में उत्सृजित होता चला गया। यानी मेरे रचनाकार के स्वतंत्र अवबोधन में महावीर की ध्यान-चेतना इसी रूप में खुलती चली गई। वे कायोत्सर्ग में आत्मस्थ होने के लिये, अलग से कोई आत्म-चिन्तन नहीं करते। वे परिवेश से असम्पृक्त और कटे हुए नहीं हैं। बल्कि सर्व के प्रति उनका ध्यानस्थ आत्म अधिकतम संचेतन और उन्मुख हो रहता है। उनका ध्यान एक विराट् ज्ञानात्मक प्रक्रिया है । ज्ञेय के साथ वे ज्ञानात्मक भाव से गहरे तादात्म्य में उतर कर, अपने ज्ञाता स्वरूप में अधिक उपलब्ध और उन्नत होते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि रचना के स्तर पर महावीर मुझे अनायास ज्वलन्त वास्तविकता के रूप में उपलब्ध हो गये हैं। उनका ध्यान भी अलगाव नहीं, जगत-जीवन के साथ गहिरतम उलझाव है, 'इन्वल्वमेंट' है। बल्कि यों कहें कि मौलिक 'इन्वेल्वमेण्ट' में उतरने के लिये ध्यान द्वारा आत्मस्थ होना जरूरी हो जाता है। तब आत्म ही अनायास सर्व होता चला जाता है । आत्मध्यान ही सर्वध्यान हो जाता है, और सर्वध्यान ही आत्मध्यान हो जाता है। मेरे ख्याल से ध्यान की मनोवैज्ञानिक असलियत यही है। तब महावीर या उस कोटि के किसी भी योगीश्वर का ध्यान अन्यथा कैसे हो सकता है। शास्त्रों की लाक्षणिक भाषा में शब्दों के बीच निहित यही आशय कई बार झलक मार जाता है। रचना में चूंकि हम भाव और संवेदना की भूमि पर काम करते हैं, इसी से उसमें चीजों के निगूढ सत्य अनजाने ही उद्घाटित हो जाते हैं। इस माने में महावीर के कायोत्सर्ग को रचने में, जैसे योग का एक नवीन ऐन्द्रिक अनुभवगम्य प्रयोग करने का सुयोग भी मुझे मिला। ज्ञान को संवेदन में, और संवेदन को ज्ञान में परिणत करने की कई नई मनस्तात्विक कुंजियां भी हासिल हुईं। महावीर का ध्यान मुझे एक महान और चरम कर्म-शक्ति के रूप में भी साक्षात्कृत हुआ। चारों तरफ़ से कट कर अपने में बन्द, द्वीपित होने वाली ध्यानमुद्रा मेरे सामने ही नहीं आयी। महाश्रमण महावीर के भीतर उनकी दुर्दम्य ज्ञानोत्सुकता ही, एक प्रचण्ड क्रियाशक्ति बन कर संचारित है। और वे सामने आने वाले हर व्यक्ति या वस्तु -स्थिति के साथ एक प्रबल संघात और उद्धात के रूप में 'इन्वल्व' होते हैं। उनसे सम्पृक्त होने वाली हर आत्मा में उनकी ज्ञानोर्जा का इतना पारगामी आघात होता है, उनकी प्रीति का ऐसा अचूक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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