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________________ का विषय बनाकर, उसका वीतराग भाव से साक्षात्कार करते हैं, और उसका साक्ष्य अपने ही शब्दों में प्रस्तुत करते हैं। अपने ही आपको अपने से अलग कर देखना, पहचानना, जाते-आते, वर्तन करते, विचार करते, कर्म करते देखना, आत्म-दर्शन की साधना का अत्यन्त परिणामकारी मनोवैज्ञानिक साधन और माध्यम है। योगी महावीर की चेतना में बद्धमूल इस उत्तम पुरुष और अन्य-पुरुष की सहगामिता का इस रचना में अत्यन्त कलात्मक ढंग से उपयोग कर लिया गया है। इस प्रयोग में अपने ही साथ अपने संवाद और लीला की एक अजीब खूबसूरत नाटकीय स्थिति उत्पन्न होती है। और वह महावीर के व्यक्तित्व को लाक्षणिक सामर्थ्य और द्रष्टा स्वरूप को रचने में गहरा योगदान करती है। इस तरह सृजन और शिल्प का एक और भी नया प्रयोग. अनजाने, अनसोचे ही हो गया। मानो कि रचना मैं नहीं कर रहा, मेरे भीतर से कोई और कर रहा है। ० ० ० जिनेश्वरी साधना में कायोत्सर्ग, ध्यान की एक विलक्षण पद्धति है। उसमें साधक खड्गासन में स्थिर खड़ा हो कर, सन्नद्ध भाव से आत्मस्थ होने का महा पुरुषार्थ करता है । अर्थात् देहभावी 'मैं' को उत्सर्ग करके, आत्मभावी 'मैं' में उन्नीत होता है। यानी वह अपने आत्म-स्वरूप और आत्मभाव में अधिकाधिक तन्मय होता हुआ, एक मनातीत द्रष्टाभाव की भूमि में अवतीर्ण होता है । तब वह जगत-जीवन को नयी आँखों से देखता है, वह व्यक्तियों और वस्तुओं के आरपार देखता है। देश-काल में घटित, आत्माओं के कई जन्मान्तरों के परिप्रक्ष्य तक में झांक लेता है। इस प्रकार ध्यान में वहं समस्त सत्ता के साथ एक आन्तरिक ‘डायलॉग' और सम्बन्ध में घटित होता है। कार्योत्सर्ग की यह मेरी अपनी मनोवैज्ञानिक समझ और व्याख्या है। ___ रूढ़ जैन शास्त्रों में इस आत्म-ध्यान को मोटे तौर पर एक बौद्धिक आत्मचिन्तन् का रूप दे दिया गया है। यानी कि साधक, शास्त्रों में कुछ खास लाक्षणिक शब्दों में वर्णित आत्मा के स्वरूप का चिन्तवन करता चला जाये । इसमें एक जड़ पुनरावृत्ति और बोरियत का अहसास होता है । क्षण-क्षण-नव्यमान आत्मा का चिन्तन् रटेरटाये शब्दों और दोहरावों में कैसे हो सकता है। उसमें एक मनोवैज्ञानिक आत्म-मंथन और आत्मान्वेषण अनिवार्य है। स्वभाव से ही सर्वतंत्र:स्वतंत्र आत्मा किसी शास्त्रीय दायरे और पदावली में अपने को कैसे परिभाषित कर सकती है। - दूसरे यह भी है, कि अपने वास्तविक परिवेश से कट कर सच्चा आत्मध्यान कैसे सम्भव है। आत्म सर्व के बीच घटित रह कर, सर्व के सन्दर्भ में ही, अपनी सही पहचान और पूरा अर्थ प्राप्त कर सकता है । आत्म का असली Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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