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________________ प्लवन होता है, कि विपल मात्र में ही उसकी चेतना रूपान्तरित हो जाती है । शूलपाणि यक्ष, चण्ड कौशिक, संगम देव, चमरेन्द्र, कटपूतना तथा अन्य अनेक उनके पीड़क मानवों और राज्याधिकारियों के सन्दर्भ में यह बात स्पष्ट हो जाती है । उनका आत्म-ध्यान आपोआप ही, इन उपसर्गों से आक्रान्त हो कर, एक महायुद्ध में परिणत हो जाता है । अपने में बन्द, पलायित हो रहने की छुट्टी उन्हें नहीं है । आत्म-प्राप्ति की राह अनेक दुर्गम बीहड़ों, नैर्जन्यों, संकट - खतरों, दुर्भेद्य तथा विरोधी शक्तियों के बीच से हो कर गई है। सर्व को भेद कर, बिद्ध कर, सर्व में से पार हो कर, सर्व का पूर्णज्ञान और सम्वेदन पा कर ही आत्म की परम पहचान प्राप्त की जा सकती है । १० इस परिप्रेक्ष्य में यह भी स्पष्ट हो जाता है, कि आत्म-योगी महावीर अपनी ध्यानस्थ आत्मा की एकाग्र ऊर्जा और अचूक क्रियाशक्ति से ही, समस्त चराचर सृष्टि से मूल में उतर कर, सतहगामी इतिहास में भी एक अपूर्व क्रान्ति और अतिक्रान्ति घटित कर रहे हैं । आत्मध्यान ही इस महाक्रान्तिकारी का अमोघ अस्त्र और अचूक कर्मयोग है । o Jain Educationa International o षड्गमानि ग्राम के वनांगन में, एक ग्वाले द्वारा ध्यानस्थ महावीर के दोनों कानों के आर-पार शूलवेध के साथ ही, आगमों में उनके तपस्या - काल की कथा समाप्त हो जाती है । उनकी तपस्या में यही चरम उपसर्ग था, सो इसके तुरंत बाद ही, उनके परम शुक्ल- ध्यान में आरोहरण करने और उसके द्वारा कैवल्य प्राप्त करने का प्रकरण आ जाता है । रचना के स्तर पर यहीं द्वितीय खण्ड की समाप्ति मुझे बहुत आकस्मिक और यांत्रिक-सी लगी । वस्तुत: इस खण्ड में आरम्भ से लेकर, ग्वाले द्वारा कर्ण-वेध के उपसर्ग तक, अधिकांश में उपसर्गों का एक अटूट सिलसिला सा चलता है । पूर्व निर्धारणा के अनुसार, महावीर उत्तम पुरुष में ही, इन उपसर्गों की आत्म-कथा कहते चले जाते हैं। लगभग सभी उपसर्ग इतने उत्कट और अमानुषिक हैं, कि सर्व सामान्यतः मानव-कथा इनमें घटित ही नहीं होती, और न स्वयम् महावीर का कोई मानव रूप हमारे सामने आता है । अतिमानुषिक प्रसंगों की एक सपाट श्रृंखला ही सम्मुख आती है । उसमें भय, आतंक, आश्चर्य, रोमांच और चमत्कार का बोध भले ही हो, पर विशुद्ध मानवीय सम्वेदन की कोई गहरी अपील पैदा नहीं होती । इन प्रसंगों से सम्बद्ध पशु प्राणियों, देवों, दनुजों और मनुजों पर, महावीर की इस मृत्युंजयी तपस्या का एक प्रतिबोधक और उन्नायक प्रभाव अवश्य पड़ता है। बेशक वह भी यथा सन्दर्भ एक उच्च स्तरीय मानवीय सम्वेदन ही है । हर उपसर्ग के समापन में, प्रभु के हर पीड़क और प्रहारक की पराजय, उसका For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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