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________________ ३५७ भी है, अखण्ड भी है। नित्य भी है, अनित्य भी है। यह द्वैताद्वैत वस्तु के स्वरूप में ही बद्धमूल है । ‘एकोऽहम् बहुस्याम्' न हो, तो जगत और जीवन की धारा अनन्त में कैसे प्रवाहित रह सकती है। "तुम अपने निज कक्ष में रहो, मैं अपने निज कक्ष में रहूँ । तुम अपने वातायन पर रहो, मैं अपने वातायन पर रहूँ। दृष्टि का प्रणयाभिसार सतत चलता रहे । तुम मुझे और अधिक और अधिक जानो। मैं तुम्हें और अधिक और अधिक जानें। फिर भी तुम्हारे निज कक्ष का एकान्त अभंग रहे। मेरे निज कक्ष का एकान्त अभंग रहे । और तभी तुम्हारा सम्पूर्ण निजत्व और एकान्त, मेरे सम्पूर्ण निजत्व और एकान्त में अनायास तन्मय हो रहे । अखण्ड लौ के साथ, अखण्ड लौ का परिरम्मण । __-परस्पर को अधिकाधिक समझने और जानने में अनजाने ही एक-दूसरे के भीतर अनन्त अवगाहन और अभिसरण। नहीं है इरादा, नहीं है इच्छा, कि ऐसा करूँ। चाहने से वह सम्भव नहीं। अनचाहे ही वह अचूक सम्भव है। ज्ञान और सम्वेदन में अटूट युगल-लीला चल रही है। उसमें अनुक्षण हम सब नितान्त अलग-अलग हैं, स्वयम् आप हैं, एकाकी। और उसी एक समय में, हम सब एक-दूसरे में आलोकित, संस्पर्शित, सम्वेदित, सम्प्रवेशित हैं। कोई स्थिति, कोई भाव, कोई परिणमन एकान्तिक नहीं। अनैकान्तिक है । वस्तुस्थिति अनैकान्तिक है, इसी से तो नाना रंग-रूपात्मक, नाना भाव-सौन्दर्यात्मक सृष्टि-लीला सम्भव हो रही है। सत्ता का स्वभाव ही एक निगूढ वैचित्य से मंडित है। महाभाव, महाज्ञान और महासम्वेदन का यह संयुक्त चेतना-स्तर कथन में नहीं सिमट सकता। मेरे ज्ञान की लहरें, सर्व के नग्न परिणमन की लहरों में जब.परस्पर संगुम्फित होती हैं, उस निजानन्द की रसलीनता को कैसे कहूँ। ओ रे,त्रिलोक और त्रिकाल के सारे परमाणुओ, पदार्थो , नर-नारियो , हृदयो, आत्माओं, मेरी ओर देखो। मैं हूँ तुम्हारे काम का चरम उत्कर्ष । तुम्हारे सारे काम, काम्य और कामिनियाँ मुझ में एकाग्र मूर्तिमान हुए हैं। वे मेरी चितवन के उन्मीलन में निरन्तर तुम्हारे साथ क्रीड़ा कर रहे हैं। __ त्रिलोक और त्रिकाल में तुम्हारे एक-एक परमाणु, इच्छा, आकार, क्रिया, भाव-सम्वेदन के साथ मेरा अविराम सम्प्रेषण और सम्वाद चल रहा है। स्वर्गों की कल्पकाम शैयाओं में मैं ही तुम्हारा सम्भोग हैं। तिर्यंच योनियों और नरकों के यातना-कुण्डों में, जहाँ तुम्हारी मूक यंत्रणाओं का, तुम्हारी अबूझ घुटनों का कोई संगी नहीं, सहभागी नहीं, साक्षी नहीं, वहाँ मैं अचूक Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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