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________________ ३५६ हर पदार्थ के निरन्तर उत्पाद, व्यय, ध्रुवत्व रूप परिणमन को अपनी हथेली में खिले कमल की तरह, उसके हर रगो-रेशे में नग्न, प्रत्यक्ष देख रहा हूँ। मैं हर विनाश में प्रवाहित हूँ, उत्पाद में ऊर्जायित हूँ, फिर भी अपने स्वरूप के ध्रुव में अविचल हूँ। ___मैं सर्वगत हूँ, और जगत के सारे पदार्थ मेरे आत्मगत हैं। क्योंकि मेरा आत्म ज्ञानमय है, और ये सारे पदार्थ मेरे ज्ञान के विषय हैं। त्रिकाल में व्याप्त अनन्त द्रव्य, उनके पर्याय, उनके प्रवर्तन, मेरे ज्ञान के तदाकार प्रमेय हैं। मैं प्रमाता, प्रमेयगत हो कर, उनकी अनुक्षण की प्रवृत्ति को देख रहा हूँ, जी रहा हूँ, भोग रहा हूँ, जान. रहा हूँ। सर्व पदार्थ भगवान आत्मा में ही हैं। उनसे बाहर कहीं कुछ नहीं । क्योंकि ज्ञान से बाहर ज्ञेय कहाँ है ? विचित्र है मेरा यह स्व-रूप, स्व-भाव । मैं वस्तुओं और व्यक्तियों को, पदार्थों और आत्माओं को अपने चैतन्य में प्रतिक्षण आत्मसात् करता हूँ। जैसे दीये की लौ में सब कुछ प्रकाशित हो कर, उसमें आत्मसात् होता है। फिर भी मैं उन सब को अपने स्वात्म-प्रदेशों से अस्पर्श करता हुआ, अप्रविष्ट रह कर ही देखता-जानता, अनुभव करता हूँ। लेकिन निगूढ़ है मेरी ज्ञानशक्ति का वैचित्र्य । क्योंकि जब मैं अपनी अन्तर-ज्योति से समस्त ज्ञेयों के प्रदेशों में प्रवर्तन करता हूँ, तो उन्हें आमूल उखाड़ कर जैसे अपने में ग्रास कर लेता हूँ। तब मैं उनके साथ अपने सम्पूर्ण आत्म-प्रदेशों से संस्पर्शित होता हूँ, उनके समस्त प्रदेशों में अपने समस्त प्रदेशों के साथ प्रविष्ट होता हूँ। ___ हर आत्मा मैं मेरा अव्याबाध प्रवेश है। हर सत्ता मेरे संस्पर्श में आलिंगित है। अनुपल उनका सारा भीतर, मेरे सारे भीतर के साथ तन्मय है। एक अनन्त निरंजन ज्योति के भीतर : एक निश्चल महामौन परिरम्भण में । हवा और प्रकाश हर कमरे की खिड़कियों से आरपार बह रहे हैं । कमरा उनमें है, वे कमरे में हैं। वे परस्पर अचूक परसित और प्रवेशित हैं। फिर भी वे अनुपल एक-दूसरे के आरपार हो रहे हैं। एक-दूसरे को अतिक्रान्त कर रहे हैं। क्योंकि सत्ता स्थिर कूटस्थ नहीं। कुछ भी अविचल नहीं। सकल चराचर निरन्तर परिणमनशील हैं। प्रवाही हैं। नित-नव्यमान हैं। नित्य तरुण हैं, नित्य सुन्दर हैं। यह सत्ता के स्वभाव में नहीं, कि कोई भी पारस्परिक स्पर्शन, आलिंगन, प्रवेशन अटल स्थिर हो रहे । क्योंकि सत्ता ध्रुव ही नहीं, उत्पाद भी है, विनाश भी है। इसी से तो सृष्टि सम्भव है, लीला सम्भव है। इसी से तो जगत-जीवन में निरन्तर तत्व का वसन्तोत्सव चल रहा है। पूर्णराग की यह शाश्वत रासलीला वीतराग के ज्योतिर्मय कुंजों में ही सम्भव है। राधा को चिरकाल राधा रहना है, कृष्ण को चिरकाल कृष्ण रहना है। विरह भी है, मिलन भी है। द्वैत भी है, अद्वैत भी है । खण्ड Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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