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________________ बहत्तर हजार नाड़ियों में प्रवाहित मेरा प्राण, सहसा ही अपसारित हो गया । और वह सूर्य और चन्द्र नाड़ियों में एक तीव्र मिलनाकुलता से प्रवाहित होने लगा। जाने कब सूर्य-श्वास चन्द्र-श्वास में लीन हो गया। चन्द्र-श्वास सूर्य-श्वास में लीन हो गया । सूर्य और चन्द्र नाड़ी एकीकृत हो कर सुषुम्ना में विलीन हो गई। ...मैंने चरम श्वास खींचा। उसमें लोकालोक में व्याप्त सारे पवन एकाग्र खिंच कर परिपूरित हो गये। मेरे हृदय के कुम्भ में वे निश्चल हो गये। ...और लो, पृथ्वी अप में लीन हो गयी, अप तेज में लीन हो गया। तेज वायु में लीन हो गया। और एकमेव वायु मेरे हृदय-कुम्भ में स्तब्ध हो गया। "अन्तर-मुहूर्त मात्र में मन, वचन, काय के सारे कम्पन स्तब्ध हो गये। विषय और विषयी का भेद समाप्त हो गया ।"एक निविषय निर्विकल्पता में सभी कुछ निस्तरंग हो गया। एक शुक्ल प्रशान्त अन्तरिक्ष, जहाँ कहीं कोई नहीं है। कुछ नहीं है । मात्र एक निःसीम शून्य का राज्य । उस स्तब्धता में सहसा ही एक उत्तोलन, आरोहण । क्षपक-श्रेणि पर आरूढ़ होता एक नग्न तेज का विग्रह । हृदय-कुम्भ में निस्तब्ध श्वास का एक प्रचण्ड संघात । ___ "ब्रह्मरन्ध्र का भेदन कर, उत्तान गतिमान तेज-शलाका । मस्तक में एक गहन उद्भेदन का आघात ।' ____ "खुल पड़ा ऊर्ध्व में, सहस्रार का महासुख-कमल । असंख्य पाँखुरियों में पल्लवित । लोकाकाश, अलोकाकाश को परिव्याप्त करता हुआ । "उसमें अनन्त कोटि सूर्यों की प्रभा, अनन्त कोटि चन्द्रमाओं में अभिसरण करती हुई। उसकी कणिका में गहन सुख-शान्ति की पराग-शया । उसमें आत्मरमणलीन परशिव, सदाशिव, अपने ही आप में नित्य परिणमनशील ।" हृदय के कुम्भ में से उत्सर्पित हो कर उत्थायमान हुई शिवानी। और वह उन अर्हत्-पुरुष शिव की गोद में उत्संगित हो कर, उनकी निरंजन ज्योति में तद्रूप आलिंगित हो गई।"ओह, मेरा आत्म ही शिव है, मेरा आत्म ही शिवानी है । मुक्ति स्वयम् ही बाला-वधु हो कर मेरी गोद में आ गई है। और अपनी गहराइयों में अनुभव कर रहा हूँ, अनन्त रमण, अपनी आत्म-रमणी के भीतर उत्संगित हो कर । हृदय के कमल में उससे अजस्र अमृत का क्षरण, प्रस्रवण । जिसके भीतर पूर्ण ज्ञान ही, महाभाव हो गया है। आत्म-सम्वेदन ही, सर्व-सम्वेदन हो गया है। "सहसा ही रमण, एक गहन विरमण में विलीन हो गया। एक निस्पन्द, निस्तरंग विश्रब्धता । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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