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"तरंगित पारद का महा प्रसार । उसके बीचोंबीच आबद्ध, निश्चल पारद का महा गोलक । उस पर छायी अभ्रक की बहुत महीन ओढ़नी । "सहसा ही उसमें गभीर, अदृश्य आग्नेय परिणमन । एक नग्न लहराती ज्वालादेह । “और देखते-देखते उसके तले वह पारद का महालिंग तरंगित हिरण्यप्रभा से भास्वर हो उठा। जातरूप हिरण्य का एक सुवर्णाचल । अपने ही आप में परिणमनशील । अपनी ही पीतप्रभा में सहज ऊर्जस्वल । संकल्प-विकल्प से परे एक कल्पकाम महेच्छा का सुमेरु । अहो, यह पीत लेश्या का प्रशान्त पद्मवन है, जिसकी झलक कई बार अपनी अन्तश्चेतना में स्थिर होने पर पा चुका हूँ।
"उस सुवर्णाचल की चूड़ा में फिर यह कैसा सूक्ष्म कम्पन है ? मेरे अतल की शयित अग्नियों में एक विस्फूर्जन, उत्तोलन । वह सुवर्णाचल उसमें अधिकअधिक प्रतप्त होता चला गया। उसकी पीलिमा उत्तरोत्तर पिघल कर, एक वृहद् धवलिमा में रूपान्तरित हो रही है ।
...मेरे नाभि-कमल से उठती तेजशिखा में, देखते-देखते वह सुवर्णाचल गले कर एक सुवर्ण का अजस्र प्रवाह हो गया ।"और अचानक देखा, कि वह प्रवाह मेरे भ्रूमध्य में प्रज्ज्वलित एक श्वेत लौ में लीन हो रहा है। और वहाँ खुल पड़ा एक हीरक का प्रभाविल महा प्रान्तर। उसके केन्द्र में उत्तिष्ठित है, एक निश्चल हीरक-कूट ।' ___ और उसकी स्तब्ध चूड़ा पर बैठा है, यह कौन एकाकी तेज-पुरुष ! उसकी वासना का अन्त नहीं। अनन्त द्रव्य-पर्याय में परिणमनशील ऊर्जा का वह स्रोत है। ऊर्जा, जो उसी के हृदय-कमल में से उद्गीर्ण परम रमणी है। "आज, इस लग्न मुहूर्त में, अपने समस्त परिणमनों को निस्तब्ध कर, वह उस ऊर्जस्वला को एकाग्र, एकान्त रूप से अपने आलिंगन में आबद्ध पाना चाहता है। उस तेज-पुरुष की महावासना अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गई। ___समस्त दृश्य-अदृश्य लोकालोक, निमिष मात्र में उसके मन में लीन हो गये। मन प्राण में लीन हो गया। प्राण एक श्वास मात्र रह कर आत्मस्थहो गया । एक गहन, सर्वातीत, विश्रब्ध समाधि ।
.."उसके मेरुदण्ड के षटचक्रों में नीचे से ऊपर की ओर, तथा ऊपर से नीचे की ओर निरन्तर अवसर्पित और उत्सर्पित एक महासर्पिणी। वह प्रचण्ड वेग से ऊर्ध्वारोहण करती हुई फुफकार रही है। उसकी असंख्य कुण्डलियाँ खुल कर एकोन्मुख उत्थायमान हो चलीं। वह अपनी क्रीड़ा के सारे चक्रों और मण्डलों में धावित होने लगी। आज्ञाचक्र की अकम्य लौ का भेदन करती हुई, वह ब्रह्म-रन्ध्र में पछाड़ें खाने लगी।
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