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________________ ३३८ चूड़ा पर भव्य पूणोकार चन्द्रमण्डल नित्य उदयमान अनुभव होता है। उसकी अमृता चाँदनी के निर्जन प्रसार में, एक शुक्ल पुरुष की तरह अपने को उन परिणमन की लहरों पर मुक्त विलास करते देख रहा हूँ। चेतना के इस शुक्ल दर्पण में सहस्रार का अखण्ड मण्डलाकार चन्द्रमण्डल रह-रह कर प्रतिबिम्बित हो उठता है। .."आत्मा अपने भावों और परिणामों की ऊर्ध्व और अधो परिणति के अनुसार, इन षट्-लेश्याओं के नानारंगी बिल्लौरी फानूस में, नाना रूपों में भावित, भासित, प्रतिभासित होती रहती है। पर स्फटिक का वह कुम्भ, जिसमें यह संवेदनों और कषायों की रंग-लीला चल रही है, अपनी निर्मल, उज्ज्वल स्फटिकता में सदा अस्पृष्ट रहता है। उसके सहस्रों जगमगाते हीरक पहलुओं में ये सारे रंग-प्रवाह यों झलक मारते हैं, मानो वह स्फटिक ही कभी नीलम हो जाता है, कभी मर्कत हो जाता है, कभी माणिक हो जाता है, कभी पुखराज हो जाता है, और कभी मुक्ता फलों का प्रान्तर, तो कभी हीरों का जगमगाता महल । पर मूलतः वह स्फटिक रंच भी बदलता नहीं, रंगीन नहीं होता है। अपनी पारदर्श उज्ज्वलता में ज्यों का त्यों अप्रभावित रहता है। जैसे बिल्लौर के प्याले में रक्तिम मदिरा हो, या कोई कबूतर हो, या हरियाला उपवन हो, उसे क्या अन्तर पड़ता है। ये लेश्याएँ, आत्मा की भावात्मक और रागात्मक परिणतियाँ हैं। ये वे मूल स्रोत हैं, जिनमें से कर्म-रज का मन और चैतन्य में प्लवन होता है। आश्रव होता है। स्वयम् चैतन्य में से ही, मनोचेतना में उद्गीर्ण होकर ये अनेक राग-भाव इन नाना रंगों के मंडलों में खेलते हैं । पर चैतन्य इनका कर्ता नहीं । ये चैतन्य के कर्ता, विधाता और निर्णायक नहीं । इन नाना रंगी छायावनों में चैतन्य अनाहत, अलिप्त खेलता विचरता है। जाने किस अपने ही अचीन्हे स्रोत में से ये भावोमियाँ प्रवाहित होती हैं, और चैतन्य के कटिबन्धों को सत, रज, तम की अनेक रंगारंग छायाओं से आकीर्ण कर देती हैं। पर न बिल्लौर इन रंगों का कर्ता है, न ये रंग बिल्लौर के मूल द्रव्य को अपनी आभाओं और छायाओं से रंजित या आच्छादित कर सकते हैं। चैतन्य की अभावात्मक छाया के निगूढ़ रहसीले विवर में से ही अचानक कषायों का यह नागवन रातों रात उठ खड़ा होता है। जड़ और चैतन्य के गठबन्धन की इस मर्म-ग्रंथि को किसी विश्लेषण द्वारा खोला या सुलझाया नहीं जा सकता। इसे समग्र आत्मिक आश्लेषण से, मात्र अपने हृदय-कमल में स्फुरित अजस्र सौरभ की तरह अनुभूत किया जा सकता है।" "और यह क्या हुआ, कि कहीं अलक्ष्य शून्य में किसी ने हठात् यह लाल कमलों का धनुष ताना है। "उफ्, एक अदृश्य कुसुमबाण मेरे हृदय को बिन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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