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.... नहीं, अत्र प्रस्तार में गति सम्भव नहीं । एक प्रचण्ड प्रतिक्रमण के साथ फिर अपनी ही तात्विक सत्ता में पर्यवसित हो रहा हूँ ।
...और हठात् देखा, कि वह लोकाकाश-पुरुष, पर्यन्तहीन आकाश के अधर में, एक विशाल स्फटिक के कुम्भ की तरह उत्तोलित है। उसके भीतर नीचे से ऊपर की ओर चेतना उत्तरोत्तर छह रंगों की प्रभा से तरंगित है । तल में है कृष्ण - घनसार जलिमा का पटल । नितान्त अवरुद्ध तमस का पारावार । उसकी सपाटी पर जो अदृश्यमान तरंग स्फुरण है, उसमें से प्रस्फुटित है नील भाव का लोक । नीचे की निपट कृष्णान्धता से उत्तीर्ण हो कर, यहाँ मोह कां पटल कुछ अधिक विरल और भाविल हो गया है। यह नील मोहिनी भी अपने कामोन्माद के सीमान्त पर पहुँच कर, उत्तरोत्तर विरलतर होती जा रही है ।
'''और अनायास जाने कब वह एक कापोत वर्णी मेखला में रूपान्तरित हो गई है । यहाँ चेतना का आवेग अधिक ऊर्जस्वल है । और वह उत्तीर्ण होने के लिये संघर्षशील प्रतीत होता है । इस संघर्ष में से उठ रहे हैं रतनारे अग्नि-स्फुलिंग । वे क्रमश: ऊपर की ओर समासित हो कर एक रक्तिम पट्टिका में समरस हो जाते हैं । इस तेजोमान रक्त-वलय में, चेतना की झील पर मानो उदात्त भावों का उत्सर्पण दिखाई पड़ता है । यहाँ चेतना की गति स्पष्ट ही ऊर्ध्वोन्मुख प्रतीत होती है ।
... प्रथम ऊषा के इस लोहित पूर्वाचल पर अचानक बेशुमार पीले पद्मों की एक पुष्करिणी उद्भिन्न दिखायी पड़ती है । इस पर कभी केशरिया नीहार छायी दीखती है, कभी शान्त पीताभ छत का-सा आभास होता है । और उस छत में, नीचे फैले पद्मवन में से अदृश्य फव्वारों की तरह प्रस्रवित होती हुई सुगन्ध और पराग की नीहारिकाएँ बरसती दीखती हैं। आत्मा के उज्ज्वलतर होते भावों में से तरंगित हो कर मानो आर्जव, मार्दव, ऋजुता, पावनता, सौन्दर्य और प्रीति की एक हेमाभ कमल - शैया सी बिछ जाती है । जिस पर अंगड़ाई भर कर उटती आत्मा की कुमारी अपने ही हृदय के दर्पण में अपना स्वरूप निहारती हुई, मुग्ध, विभोर, अन्तर -मैथुन में तल्लीन-सी दीखती है ।
...और औचक ही उसके महाभाव मुखमण्डल के चारों ओर एक चन्द्राभ आभावलय आविर्मान दिखायी पड़ता है । और अगले ही क्षण, उस कुमारिका की समग्र आकृति सिमट कर उस आभावलय में शैयालीन होती-सी प्रतीयमान होती है । और तब उसके हृदय के पद्म- सम्पुट में से अनायास शुद्ध परिणमन का एक श्वेताभ समुद्र खुल पड़ता है । और उसकी मध्य-वेला की
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