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________________ मनुष्य हूँ, मानव-सन्तान हूँ, और इसी से अपने मूलाधार, उपस्थ, योनि-लिंग, और विवली के अत्यन्त संवेदनशील मर्मप्रदेश में इस समस्त मनुष्य लोक के राशिकृत सुख-दुखों को अनुक्षण संवेदित कर रहा हूँ। एक मनुष्य में, मानो सर्वकालीन मनुष्य मान का एक अविकल ब्रह्माण्ड हूँ। "और मेरी ऊर्ध्व देह के मेरु-दण्ड में नीचे से ऊपर की ओर सोलह कल्प-स्वर्ग, नौ ग्रेवयक, और उससे ऊपर सर्वार्थसिद्धि के अनुत्तर विमान हैं। देह-सुख यहाँ उत्तरोत्तर कालबोध से परे निविड़तम और सूक्ष्मतम होते जाते हैं। ऐसे कि, ऐन्द्रिक सुख में ही अतीन्द्रिक सुख का आभास-आस्वाद होता है। कामना मात्र करते ही, कल्प-वृक्षों से या अपने ही भीतर की कामग्रंथियों के प्रस्रवण में से हर सम्भव इच्छा यहाँ तृप्त हो जाती है। पर हाय रे, फिर भी आत्मकाम यहाँ अतृप्त ही रह जाता है। चरम अपनत्व की तल्लीनता यहाँ भी सम्भव नहीं।" और अचानक देखता हूँ, कि मेरे मस्तक में खुल पड़ा है अनन्त-व्यापी सहस्रार : सहस्रदल कमल। जिसकी पाँखुरियाँ दिक्काल का अतिक्रमण कर रही हैं। मानो कि दिक्काल उसकी केसर-कर्णिका में से निरन्तर प्रवाहित सौरभ-पराग की तरंगमाला मात्र हैं। उस केसर कर्णिका में उत्तिष्ठ एक ज्योतिर-मृणाल पर अवस्थित है अर्ध चन्द्राकार सिद्धशिला। ___..और लो, उसकी चूड़ान्त कोर पर अपने को परम ज्योतिराकार, पुरुषाकार खड़े देख रहा हूँ। और मुझ में से आकाश आरपार बह रहा है। और उस आकाश में समस्त द्रव्य-पर्याय अपने विशुद्ध स्वरूप में निरन्तर परिणमनशील हैं। किन्तु 'मैं' अभी 'वह' नहीं हो सका हूँ। उसके चारों ओर परिक्रमायित हूँ : अपने ही आत्म-समुद्र के अनेक कटि-बन्धों और द्वीप-द्वीपान्तरों से सन्तरण करता हुआ, लोकाग्र के वातवलयों पर आ खड़ा हुआ हूँ। और देख रहा हूँ, यह त्रिलोकाकार पुरुष चारों ओर से अन्तहीन, महा वेगवान, महा बलवान तीन पवनों से आकीर्ण है। पहला है घनोदधि पवन, जो अपने में अत्यन्त चण्डवेगी हो कर भी बादल-बेला के समुद्र-क्षितिज की तरह घनश्याम और स्तब्ध प्रतीत होता है। उससे परे है घनवात पवन, जो मंगिया रँग की अति सूक्ष्म ऊर्मियों से आविल एक वायवीय प्रसार है। और उससे परे है तनुवात-वलय जो उत्तरोत्तर शीर्णतर होता हुआ, रूप-रंगआकार से अतीत होता हुआ-एक अतीर्य शून्य में विलीन हो गया है। और इस लोकाकार पुरुष को देख रहा हूँ, अलोकाकाश के सत्ताहीन शून्य में डग भरता हुआ कि और आगे और आगे और आगे जाना है ! क्या है वहाँ ? Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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