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________________ ३३५ इसी से स्वभावतः इसका मुझ में अवगाहन, और मेरा इसमें अवगाहन, इसका मुझमें रूपायन और मेरा इसमें रूपायन एक अद्भुत्, अनिर्वच जीवन-लीला की सृष्टि करता है, जो कि विश्व ब्रह्माण्ड है। ___ यह लोक एक ही अविभाज्य काल-परमाणु में उत्पाद, व्यय और ध्रुव से संयुक्त है। चेतन-अचेतन पदार्थों की परस्पर अतिक्रमणशील राशियों से आपूरित है। इसका न कोई आदि है, न कोई अन्त है। यह अनादिसंसिद्ध है। किसी के द्वारा किसी के कर्तृत्व-व्यापार से वर्जित है। ...देख रहा हूँ, अपने इस लोकाकार विराट् स्वरूप को, जो कमर पर हाथ धर कर खड़ा, पैरों को प्रसारित किये मानो किसी प्रतिपुरुष के रूप में मेरे समक्ष दण्डायमान है। अपने फैले पैरों के बीच के अतल विस्तार में यह निगोदिया जीवों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म संसार को धारण किये है, जो घड़े में भरे घी की तरह घनीभूत, उसमें ओतप्रोत हैं। ये स्पर्शेन्द्रिय देह मात्र हैं। अनुपल एक-दूसरे में अकारण संघर्षित हो कर, ये एक ऐसी अन्ध पीड़ा से प्रपीड़ित हैं, कि उसके अनुभव तक से मानो वंचित हैं। .."इनके ऊपर हैं नरकों की सात पृथ्वियाँ। नीचे से ऊपर की ओर ये हैं-महातमःप्रभा, तमःप्रभा, धूम्र-प्रभा, पंक-प्रभा, बालुका-प्रभा, शर्करा-प्रभा, रत्न-प्रभा । इस घनघोर जड़ान्धकार में, तत्व ऊपर से नीचे की ओर मन्द से मन्दतर होती अपनी मौलिक प्रभाओं से प्रस्फुरित हैं। मानो कि विशुद्ध अन्धकार का कहीं अस्तित्व ही नहीं । पदार्थ अपने स्वभाव में ही भास्वर है। पारस्परिक रगड़-घर्षण में, उसकी प्रभाएँ ऊर्ध्व-अधो परिणमन के अनुसार बुझती-उजलेती रहती हैं। सात पटलों और उनके भीतर व्याप्त असंख्य बिलों में जीवात्मा विविध-रूपिणी यातनाओं की पराकाष्ठाएँ भोग रहे हैं, अपनेअपने विभिन्न कर्मानुबन्धों के अनुसार। यहाँ सम्बन्धों का सर्वथा अभाव है। न यहाँ जीव का कोई मित्र है, न बन्धु, न संगी-संगिनी, न सखा, न भृत्य, न स्त्री-पुरुष, न माता न पिता । यहाँ वह आप अपना ही मित्र और स्वामी नहीं । एक चरम, परवश अनाथत्व में चीत्कारता, वह निपट निराधार यातनापिण्ड मात्र रह गया है। जहाँ केवल यातना ही, यातना की साक्षी है। आत्म यहाँ मानो विलुप्तप्राय है। अपने दुःखों का अन्तिम भोक्ता और साक्षी नित्य रहने को विवश होकर भी, इस असूझ तमसा में वह मानो निपट अन्धकार और उसमें ऊमिल रक्तधारा का कम्पन-पटल मात्र रह गया है।" ...और इस लोकपुरुष के कटिभाग में, डमरू-मध्य की तरह असंख्यात द्वीप-समुद्रों से आवेष्ठित मध्यलोक है। अनन्तान्तकाल में यहाँ, चौरासी लाख जीव-योनियों के बीच मनुष्य जाति की जीवन-लीला चल रही है । स्वयम् Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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