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________________ ३३४ ""और लो, कर्मों के चक्र मकड़ी के सूक्ष्म तंतु-जालों की तरह टूटते जा रहे हैं। एक आदिकाल की महारात्रि, शुद्ध परिणमन की नीलाभ समुद्रवेला में अवसान पा रही है। रजस् और तमस् की मोहाविल रज का कोहरा धीरे-धीरे फट रहा है। भीतर के पूर्वाचल की चूड़ा में अन्तरित एक अभिताभ सूर्यमुख की ऊषा सर्वत्र छिटकी है। ...और चेतना के विश्रब्ध सघन पटल में यह कैसा कम्पन है, आप्लावन है। कुछ ऊर्जायित है, आकार लेने को ? और क्या देखता हूँ, कि स्वयम् लोकाकार होकर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़ा हूँ। फिर भी इस त्रिलोक-बिम्ब से अलग, अपने ही आप में अवस्थित हो कर, एक ही अविभाज्य मुहूर्त में इसे देख रहा हूँ, अपने को देख रहा हूँ। "महाभिनिष्क्रमण की पूर्व-सन्ध्या में, जो अपने अन्तःसाक्षात्कार के वातायन से अलोकाकाश से लगा कर, लोक-चूड़ान्त में विद्यमान सिद्धशिला तक की यात्रा की थी, उसकी फलश्रुति को इस क्षण प्रत्यक्ष अपने में आत्मसात अनुभव कर रहा हूँ। उस समय दर्शन के साथ ही, इस समस्त लोकालोक में केवल परिक्रमण अनुभव हुआ था। इस समय केवल परिक्रमण नहीं, विशुद्ध दर्शन-ज्ञानात्मक रमण की अनुभूति हो रही है। लोकाकाश और अलोकाकाश की वायु-सन्धि पर अपने ही भीतर दण्डायमान हो कर मानो एक छलांग में अलोक-शून्य को माप रहा हूँ, तो दूसरी छलांग में लोक-घनत्व को समेट रहा हूँ। "अपने चारों ओर अनन्तानन्त प्रदेश रूप आकाश को देख रहा हूँ। यह स्वप्रतिष्ठ है। अपने ही आधार पर है। न यह मुझ पर आधारित है, न मैं इस पर आधारित हूँ। यह स्वयम् आप अपना ध्रुव है। मैं स्वयम् आप अपना ध्रुव हूँ। इन दो ध्रुवों के बीच जो अन्तर-ध्रुवीयता है, उसी का नाम संसार है। परस्परोपग्रह तत्वानाम् । तत्वों में पारस्परिक संकर्षण, संक्रमण, उपग्रहण होकर भी, अन्ततः वे एक-दूसरे में हो कर अतिक्रमणशील हैं, प्रतिक्रमणशील हैं। वे बारम्बार अपने में लौट रहे हैं, और फिर-फिर एक-दूसरे में चंक्रमित हो रहे हैं। और इन दो ध्रुवों की अदृश्यमान सन्धिरेखा पर मैं कायोत्सर्गित हूँ। इस आकाश से बड़ा अन्य कोई पदार्थ नहीं, जिस पर यह आधारित हो सके। मुझ से बड़ा कोई पदार्थ नहीं, जिस पर मैं आधारित हो सकू। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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