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________________ ३३९ कर गया। ओ"कामदेव! बहुत दिनों बाद फिर मेरी राह आये, मदनेश्वर! तुम्हारा सहर्ष स्वागत है, मेरे अपने ही मनोज-देवता! यदि मेरी मुक्ति की राह में तुम्हारा कुसुम्भी फूलदेश सामने आया है, तो अवश्य उसमें से यात्रा करूँगा। तुम्हारे रासकुंजों के रसाकुल अंधकारों में अव्याबाध संचरण करूँगा। तुम्हारे तमालवनों में निरन्तर चल रही मिथुन-लीला को फूल-हारों की तरह अपने गले में धारण करूँगा। उन फूलों को सूंघकर उन्हें अपनी सुषुम्ना की तुरियातीत नदी में बहा दूंगा। लो, मैं आया काम, तुम्हारे महाराज्य में । तुम्हारी मादिनी हवाओं से मैं अपरिचित नहीं हूँ। ."चन्दनी रंग का आकाश-वातास । उसमें रह-रह कर छिटक उठती हैं गुलाबी बुंदकियाँ। कहीं अलक्ष्य दूरी में मलयागिरि की श्रेणियाँ । उनके शिखर-देश पर झूमती चन्दन-वृक्षों की पंक्तियाँ। उनकी डालियों में से प्रवाहित मलय-पवन की लहरियाँ । सारा वातावरण उनकी विदग्ध उन्मादना से चंचल है। उन मलय-विटपों के तनों में लिपटे रति-विभोर सर्प-युगल । उनके नील श्वासों से पीत वातास में उभरती हरियाली का विश्व । .."गुलाबी नीहार में से आकार लेता पद्मराग-मणि का भव्य तोरण सम्मुख है। उसके शिखर पर लोहिताश ज्वाला में से तरंगित काम-बीजाक्षर : 'ह्रीं'। मेरे भीतर ध्वनित हुआ 'ह्रीं अह । ओ, वसन्त का सदा-तरुण अप्सराकानन । सहस्रों फूलों लदी डालियों के आमन्त्रण । मैं उस पद्मराग-तोरण में प्रवेश कर गया। "पलाशों की झाड़ियों में दीपित किंशुक फूलों की कई-कई रातुल हथेलियाँ। उनमें उठती ज्वालाएँ। उनके छोरों पर तरंगित, ध्वनित-ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं ॐ ह्रीं।' और चारों ओर खुल पड़ी, सब ऋतुओं के सारे ही फूल वनों और फलवनों की वीथियाँ। जुही और मालती की नाजुक तलाओं से छाये बेलावन ।"दूर पर छायी कादम्बिनी अँधियारियाँ । उनमें ऊष्म कचनार-वन, नीले तमाल-कुंज, पीताभ कदम्ब कानन । बहुरंगी फूलों की सुगंधित जालियों से आच्छादित, निगाह के पार तक फैला फूलों का सीमाहीन विश्व । ."रंगारंग फूलों के ज्वार, फूलों के प्रान्तर, फूलों के क्षितिज । फूलों के ही दिनरात । फूलों के ही सूर्य-चन्द्रमा। फूलों के दिगन्त । एक इन्द्रधनुषी ओढ़नी, हवा में उड़ती हुई, इस सारे वसन्तराज्य पर फहरा रही है। उसकी मादन मौलश्री गंध । उसमें जाने किन मंजरित आम्रवनों की गहरी गोपनता का आमंत्रण है। कोकिल की मादिनी टेर में फूटता पूरा अम्बावन । पकने को व्याकुल एक अदृश्य विपुल आम्रफल । उसकी गुलाबी पीलिमा । उसके भीतर बन्द रस, मार्दव, माधुर्य, स्पर्श का व्याकुल गहराव । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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