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________________ ३२६ 'जो तुम कहते हो, सब हूँ तुम्हारी । उससे भी अधिक कुछ हो तो, वह भी । तुम सो जाओ, स्वामी । शान्त हो जाओ ! ' 'और तुम... ?' 'तुम्हारे पास बैठी हूँ न !' 'आज मुझे अपने आलिंगन में लो, हुता । गलियारे में मृत्यु की पदचाप स्पष्ट सुनी है अभी । अपनी छाती में मुझे डुबा लो, और इस मृत्यु से मुझे बचा लो, मेरी सावित्री !' 'ब्रह्मचर्य के बिना वह सम्भव नहीं । मेरे ब्रह्मचर्य को अक्षुण्ण रहने दो आज की रात । और कल कल तुम एकदम चंगे हो जाओगे ! ' सच सच सच सचमुच ? ओह, सच ही तुम मानवी नहीं, देवी हो, हुता । मेरी सावित्री !" 'तुम्हें नींद आ रही है न ?' ' तुम्हारे हाथ की उस औषध से यह कैसा मधुर नशा आ रहा है । सच ही अमृत-सुरा पिला दी तुमने। जैसे शरीर में कोई रोग ही नहीं रहा । फूल-सा तैर रहा हूँ, तुम्हारे आँचल की सुगन्ध में । आह, कैसा सुख है ! ... ' कहते-कहते सर्पगन्धा के गहरे नशे में वरुण की चेतना डूबती ही चली गई । और उस दूरी में से ही उसने पुकारा : 'हुता हुतातुम कहाँ जा रही हो पीठ फेर कर ?' 'गंगा-तट पर खड़ी होकर आज अखण्ड रात सावित्री-तप का समापन करूँगी । सुख से सो जाओ। मैं तुम्हारे भीतर ही तो हूँ !' ''और मझ रात के स्तब्ध छलांगे भरते रथ में बैठी हुता, गई ।... सन्नाटे में, काशी के कोट्टपाल के हवा में काशी और गंगा की सीमा के पार हो और वरुण संजीवनी - सुरा पी कर ऐसा सोया, कि उसकी अगली साँस एक और गर्भ के अँधेरे में घुटने लगी । नया जीवन आरंभ करने को छटपटाने लगी । .... संसार को उसकी असली प्रकृति में नग्न देखा मैंने । यहाँ कोई किसी का नहीं । हम सब एक दूसरे को अन्य हैं, पराये हैं । हम दूसरे को प्यार नहीं करते, दूसरे में भी केवल अपने ही को प्यार करते हैं । हम केवल अपने में रहने को अभिशप्त हैं। केवल अपने को प्यार करना ही हमारी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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