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________________ एकमेव नियति है। हमारी यह काया, यह सांस भी हमारी नहीं । सब अन्य है, पर व्यक्ति है, पर आत्मा है, पर पदार्थ है। अनन्य केवल मैं हूँ अपने लिये । और जो भी अपनत्व है, ममत्व है, जो यह दूसरे को अपनाने की या दूसरे के अपना हो जाने की अचूक प्राणाकुलता है, वह मात्र आत्माभास है, आत्मछल है। अन्य में केवल अपने ही को देखने, खोजने, पाने का बहाना है। एक निष्फल मायावी प्रयास है। हाय से संसार ! ... लेकिन क्या सावित्री सत्यवान से तदाकार नहीं हुई थी? क्या वह यम से अपने वल्लभ के प्राण नहीं जीत लाई थी? क्या उसने अपने अनन्य प्यार से मृत्यु को नहीं जीत लिया था? काल को नहीं पछाड़ दिया था? क्या वह एक विशुद्ध आत्म की, दूसरे विशुद्ध आत्म में अपने अनन्यत्व और अभिन्नत्व की उपलब्धि नहीं थी? क्या सावित्री सत्यवान नहीं हो गई थी, क्या सत्यवान सावित्री नहीं हो गया था ? इसका उत्तर पाने को शायद केवल सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान काफी नहीं है। अवधिज्ञान और मनःपर्यय-ज्ञान द्वारा केवल देश, काल और मनों के सीमान्तों तक यात्रा करना काफी नहीं है। उससे आगे जाना होगा। दूसरे की आत्मा से सीधे टकराना होगा। और उसके लिये शायद, देह, प्राण, मन, इन्द्रियों के सारे द्वार एक बार बाहर से नितान्त मुद्रित कर लेने होंगे। इस राह जो भी सम्प्रेषण है, संवाद है, दर्शन-ज्ञान है, वह अधूरा है। उसी से संसार और मनुष्य की स्थिति का अन्तिम निर्णय कैसे कर लूं। एकमेव, प्रत्यक्ष, अविकल्प कोई ज्ञान, कोई सम्वेदन कहीं है ?.."तो उस तक पहुंचना होगा। ऐसा कोई ज्ञान, जो स्व-पर के भेद-विज्ञान से परे, बस एक अभेद अखण्ड बोध हो, संयुक्त संवेदन हो । जहाँ ज्ञाता और ज्ञेय का भेद तक समाप्त हो जाये। उसके बिना ज्ञेय के सत्व को आत्मवत् कैसे अनुभव कर सकता हूँ। और आत्मवत् जो अनुभव न हो, जो आत्मानुभूति न हो जाये, ऐसा पर का ज्ञान भी सत्य, अविकल्प, निर्धान्त कैसे हो सकता है। . "अपनी गहिरतम गहराई में पर्यवसान पा जाना होगा! 00 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003846
Book TitleAnuttar Yogi Tirthankar Mahavir Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVirendrakumar Jain
PublisherVeer Nirvan Granth Prakashan Samiti
Publication Year1979
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Biography
File Size6 MB
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