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'स्वयम् सावित्री ने आज सिंगार किया है तुम्हारी सती का, मेरे वरुण, मेरे सत्यवान !'
'आह मेरी हुता, मेरी वेद-पुत्री गायत्री। दिवो-दुहिता उषा.'
सीढ़ी में कोई सतर्क दबी पगचाप सुनाई पड़ी । हुता चौकन्नी हुई। और अगले ही क्षण वह चुपचाप कक्ष से बाहर हो गयी।
"बाहर अँधेरे लम्बे गलियारे में सुनाई पड़ा एक फुसफुसाता-सा वार्तालाप :
'काशी के कोट्टपाल मेरे जीवनधन !' 'इस रत्न-सज्जा में एकदम देवांगना लग रही हो, मेरी प्यार ।' 'तुम्हारे ही दिये तो ये रत्नालंकार, ये चीनांशुक, ये फूलल...!'
और सुरा के नशे में प्रमत्त कोट्टपाल ने गलियारे की उस अन्धी दीवार में हुता को कस कर भींच दिया। अनवरत व्याकुल चुम्बनों और आलिंगनों की दबी-दबी ध्वनियाँ! .."आहे. सिसकारियाँ ।
'आह'बस बस' 'कब तक बस..?' 'नहीं छोड़ दो, आज नहीं...'
'मेरे धीरज की हद हुई।"ओह, आज नहीं तो फिर कब ? कल किसने देखा है...?'
अन्धे गलियारे में मदनाकुल देहों का घमासान ।
‘आह, हुता, तुम कहाँ चली गई ?.."देखो तो, गलियारे में यह कैसी रहस्यभरी धमधमाहट है. ? कोई प्रेतलीला तो नहीं ? हुता, तुम कहाँ चली गई...? मुझे अकेला न छोड़ो, बहुत भय लग रहा है !'
...साँसों की धमनी से प्रज्ज्वलित, लाल-लाल लपट-सी हुता लौटी। वस्त्रालंकारों की सुगन्धित सर्सराहट सुन वरुण चीख उठा : ___'ओह, मेरी हुता, मेरी आत्मा, मेरी प्राण, मेरी शरीर हो न तुम ? केवल मेरी !'
'हूँ न, केवल तुम्हारी ।..' 'कहो कि तुम्हारी आत्मा, तुम्हारी प्राण, तुम्हारा शरीर हूँ..! कहो न !'
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